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पर्यावरण प्रहरियों को भुगतनी पड़ी पीड़ा

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आजादी के बाद आर्थिक वृद्धि की तेज रफ्तार हासिल करने के लिए बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण के जरिए औद्योगिक परियोजनाओं, बहुउद्देश्यीय बांधों, सड़कों, पॉवर प्लांट और नई टाउनशिप का निर्माण किया गया। इन विकास परियोजनाओं के लिए पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया गया और लोगों को विस्थापित किया गया। दूरदराज के गांवों, पहाड़ों और जंगलों में होने के कारण इन विकास परियोजनाओं को नोटिस नहीं किया जा सका। वहां इनके अतिक्रमण का शिकार वे स्थानीय लोग हुए जो संरक्षण के परंपरागत एजेंट रहे हैं। यहां विस्थापन से आशय जीविकोपार्जन, आवास एवं पूंजी के खत्म होने के साथ सामाजिक विलगाव और पारिस्थितिक तंत्र से पृथक्करण है। इन्हीं के सहारे पहले उनका निर्वहन हो रहा था। इससे विस्फोटक स्थितियों में भी बढ़ोतरी हुई। इस नए भूमि अधिग्रहण का हिंसक प्रतिरोध इसके खिलाफ पनपते असंतोष का संकेत है। इसकी वजह से विस्थापित आदिवासी और अन्य लोग उनके जीविकोपार्जन की ‘व्यवस्थित लूट’ करने वाले ‘वैश्वीकरण के एजेंटों’ के खिलाफ एकजुट हो गए। अहिंसक सामाजिक कार्यकर्ता और मानव अधिकार समूह उनके समर्थन में आगे आए।

 

 

बांधों के निर्माण के चलते बड़ी संख्या में लोग दर-ब-दर को मजबूर हुए। इससे फैले सामाजिक असंतोष के पीछे प्रमुख रूप से तीन कारण जिम्मेदार हैं : 

 

1. विस्थापित लोगों का पुर्नवास करने के मामले में सरकार की योग्यता और प्रतिबद्धता का रिकॉर्ड निराशाजनक रहा है। अधिकांश विस्थापित लोगों को भुला दिया गया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 से पहले पुनर्वास और बसाने के लिए कोई कानून ही नहीं था। विस्थापित लोगों को जो पुनर्वास पैकेज दिए गए वे अपर्याप्त थे और उनमें भी भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा। लिहाजा जरूरतमंद लोगों तक मदद पहुंची ही नहीं। मसलन 1963 में भाखड़ा बांध बनने के बाद जिन 2,180 परिवारों को विस्थापित किया गया उनमें से दो दशक बाद भी 1988 में केवल 730 परिवारों को ही फिर से बसाया जा सका।

 

बांधों पर विश्व कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘भारत में सरदार सरोवर प्रोजेक्ट के लिए विस्थापित लोगों को फिर से बसाना महती काम रहा। 1984 से शुरू हुई इस प्रक्रिया के बाद 20 प्रतिशत से भी कम चिन्हित विस्थापित लोगों को फिर से बसाया जा सका।’

 

 2. ये प्रोजेक्ट बड़े पैमाने पर भौतिक एवं पर्यावरण को क्षति पहुंचाते थे। इस विनाश से निपटने में सरकार नाकाम रही।

 

3. ये प्रोजेक्ट लाभ उत्पन्न करने की तुलना में अधिक महंगे साबित हुए। विशेष रूप से उन स्थानीय लोगों के लिए जो इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।

 

 नई राष्ट्रीय नीति

विस्थापन से निपटने के लिए लंबे समय तक कोई राष्ट्रीय नीति या वैधानिक कानून नहीं रहा। 1894 के भूमि अधिग्रहण एक्ट का जोर नुकसान के बदले में नकद मुआवजे पर ही रहा। नई राष्ट्रीय नीति रिसेटेलमेंट एवं रिहेबिलिटेशन, 2007 की घोषणा सरकार ने की है। इसमें कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं :

’जिन प्रोजेक्ट की वजह से मैदानी इलाकों के 400 परिवारों और पहाड़ी क्षेत्र के 200 परिवारों का विस्थापन होता हो तो ऐसे प्रोजेक्ट को शुरू करने से पहले उनके सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाएगा

’भूमि का अधिग्रहण बाजार दरों पर होगा

’अपंग, अनाथ और 50 वर्ष से अधिक आयु वालों को आजीवन पेंशन

’प्रभावित परिवार बतौर मुआवजा मिलने वाली राशि का 20 प्रतिशत प्रोजेक्ट के शेयर के रूप में भी ले सकते हैं

 

प्रो महेंद्र पी लामा

(सिक्किम विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर और नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड के पूर्व सदस्य रह चुके हैं )

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न्यूनतम विस्थापन से विकास को मिले बढ़ावा

 

भारत जैसे विशालकाय देश के लिए विकास बहुत जरूरी है। भारी भरकम आबादी के कल्याण, उसकी क्षुधा शांत करने वाली रोटी, कपड़ा और मकान के इंतजाम के लिए तेज आर्थिक विकास अपरिहार्य है। विकास अगर समावेशी और चहुंमुखी हो तो उसका विकार समाज पर नहीं पड़ता है। मंत्र यही है कि कम से कम विस्थापन से विकास किया जाए।  

 

इस समस्या को दूर करने के लिए एक ही रास्ता है कि किसी परियोजना के लिए जितनी जगह की जरूरत होे उसकी दस गुनी जमीन चिन्हित की जाए। चिन्हित की गई संपूर्ण जमीन में से परियोजना और ढांचागत विकास के लिए आवश्यक जमीन निकालकर शेष लगभग 80 प्रतिशत जमीन को उस क्षेत्र के सभी जमीन मालिकों में उनकी पहले की जमीन का अनुपात ध्यान में रखते हुए बांट दिया जाए। उदाहरण के लिए, 100 एकड़ की परियोजना के लिए उस क्षेत्रमें 1000 एकड़ भूमि चिन्हित की जानी चाहिए। इसमें से 100 एकड़ भूमि परियोजना के लिए एवं लगभग इतनी ही ढांचागत विकास के लिए अलग करके, बाकी बची 800 एकड़ भूमि को उस क्षेत्र के सभी भूमि मालिकों में आनुपातिक रूप से बांट दिया जाना चाहिए ।

 

ऐसा करने से किसी भी व्यक्ति को अपनी जमीन से विस्थापित होकर दूर नहीं जाना पड़ेगा। किसी भी व्यक्ति की पूरी जमीन अधिग्रहीत नहीं होगी। उसी क्षेत्र में रहने से उन्हें विस्थापन का दर्द महसूस नहीं होगा। जितनी जमीन सरकार परियोजना एवं ढांचागत विकास के लिए अधिग्रहीत करेगी, उसका मुआवजा, नौकरी या अन्य सुविधाओं का लाभ भी उन्हें उस क्षेत्र में रहते हुए ही मिल सकेगा।

 

दुनिया भर में नगर नियोजन के लिए इस फार्मूले का उपयोग किया जाता है। लोगों की सुविधानुसार इस फार्मूले में थोड़ी-बहुत तब्दीली करके इसे  विकास परियोजनाओं में भी लागू किया जा सकता है।

चंद्रशेखर प्रभु

(नगर नियोजन विशेषज्ञ)

 

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