- 442 Posts
- 263 Comments
खर्च बढ़ाना ही समाधान नहीं
चुनाव सुधार के सिलसिले में पिछले दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा है कि वह कोशिश करेंगे कि चुनावी खर्चे की अधिकतम सीमा बढ़ाई जाए। वर्तमान व्यवस्था के तहत संसदीय चुनावों में खर्च की अधिकतम सीमा 25 लाख और विधानसभा चुनाव के लिए 10 लाख निर्धारित है।
मुख्य चुनाव आयुक्त की इस बात के सिलसिले में पहले कुछ प्रमुख तथ्यों की ओर गौर करना बेहद आवश्यक है –
* निर्वाचन नियमों की आचार संहिता में चुनावी खर्च का प्रावधान निहित है, जिसका निर्धारण सरकार द्वारा किया जाता है। चुनाव आयोग केवल सुझाव ही दे सकता है। नियमों में सुधार का अधिकार केवल सरकार के पास है.
* चुनावी खर्च सीमा बढ़ाए जाने की मांग सबसे ज्यादा राजनीतिक नेतागण करते हैं।
* चुनाव के बाद सदस्यों को अपने चुनावी खर्च का ब्यौरा निर्वाचन आयोग को देना होता है। 2009 में लोकसभा चुनाव के बाद नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने करीब 6753 प्रत्याशियों के खर्चों का विश्लेषण किया ।
* केवल चार सदस्यों ने खर्च की तय सीमा से ज्यादा खर्च किया।
* 30 सदस्यों ने अधिकतम खर्च की सीमा (25 लाख) का करीब 90 प्रतिशत (22.5 लाख) धन खर्च किया ।
* बाकी बचे 6719 सदस्यों (99.5 प्रतिशत) ने निर्धारित 25 लाख की तय सीमा में से 45-55 प्रतिशत धन का हिस्सा ही खर्च किया। यानी कि इन लोगों ने 11.25-13.75 लाख रुपये खर्च किए ।
ये तथ्य अपने आप में कई सवाल खड़े करते हैं। पहला तो यही कि जब 99.5 प्रतिशत लोग निर्धारित चुनावी खर्च का केवल 50 प्रतिशत की खर्च कर पाते हैं तो खर्च की सीमा बढ़ाने की क्या जरूरत है और इसको बढ़ाने के लिए शोर क्यों मचाया जा रहा है? इससे स्पष्ट है कि अधिकांश प्रत्याशी अपने खर्च के विषय में सही जानकारी नहीं प्रदान करते। दरअसल प्रत्याशी का खर्च तय सीमा से ज्यादा होता है लेकिन नियमों के मुताबिक खर्च दिखाना उसकी मजबूरी है।
अब सबसे बड़ा सवाल उठता है कि चुनावी खर्च ज्यादा क्यों होता है? ऐसी कौन सी शक्तियां है जो प्रत्याशी को ऐसा करने पर मजबूर करती हैं? चुनावी खर्च इसलिए ज्यादा होता है क्योंकि राजनीतिक दल कारपोरेट इकाइयों की तरह काम करते हैं और किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना ही उनका मकसद होता है। प्रत्याशी को उसके निर्वाचन क्षेत्र में किए गए सार्वजनिक कार्यों के आधार पर टिकट नहीं दिया जाता बल्कि ‘जीतने’ का पैमाना ही अंतिम होता है। कभी-कभी किसी बाहरी प्रत्याशी को एक निर्वाचन क्षेत्र में थोप दिया जाता है और उसके पास चुनाव प्रचार के लिए केवल दो-तीन सप्ताह का समय होता है। ऐसे में प्रत्याशी पैसे को पानी की तरह बहाता है।
लिहाजा चुनाव खर्च सीमा बढ़ाना समस्या का हल नहीं है। चुनावी खर्च को नियंत्रित करने का सबसे कारगर तरीका यह है कि राजनीतिक दलों की वित्तीय कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाया जाए। इस संदर्भ में ‘चुनाव नियमों में सुधार’ पर लॉ कमीशन की 170वीं रिपोर्ट के एक पैरा में लिखा गया है- यदि लोकतंत्र और जवाबदेही हमारे संवैधानिक तंत्र की आधारशिला हैं तो यही बात हमारे राजनीतिक दलों पर लागू होती है क्योंकि वे संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग होते हैं। ये राजनीतिक दल ही होते हैं जो सरकार बनाते हैं, संसद में अपने सदस्यों को भेजते हैं और देश का शासन चलाते हैं। ऐसे में इन दलों के लिए बेहद आवश्यक है कि वे अपनी पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र, वित्तीय पारदर्शिता और कार्यशैली में जवाबदेही सुनिश्चित करें। जो राजनीतिक दल अपने आंतरिक कामकाज में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का सम्मान नहीं करते, उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह शासन के दौरान इन सिद्धांतों का सम्मान करेंगे। यह सम्भव नहीं हो सकता कि पार्टी के भीतर तानाशाही हो और बाहरी कामकाज में लोकतांत्रिक व्यवस्था हो।
कई पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त अपने कार्यकाल के दौरान भी यह बात कह चुके हैं कि प्रत्याशियों पर चुनावी खर्चे की सीमा तय करने का तब तक कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है जब तक राजनीतिक दलों द्वारा खर्च करने की सीमा पर कोई अंकुश नही लगाया जाता। दरअसल जनप्रतिनिधित्व कानून (1951) के सेक्शन 77 में चुनावी खर्चे और अधिकतम सीमा के विषय में ही उल्लेख किया गया है। हालांकि 1975 में कंवरलाल गुप्ता बनाम अमरनाथ चावला केस में इस सेक्शन की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इसका मकसद चुनाव में धन के प्रभाव को रोकना और चुनावी प्रक्रिया को बेहतर बनाना है। बाद में संसद में इस कानून में संशोधन कर दिया गया जिससे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का प्रभाव कमजोर हो गया। कुल मिलाकर वर्तमान कानून में चुनावी खर्चे की सीमा से बच निकलने के पर्याप्त अवसर हैं।
चुनाव खर्च
प्रस्तावित चुनाव खर्च के तहत विधानसभा चुनावों में वर्तमान चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा 10 लाख को बढ़ाकर 16 लाख रुपये किया जाना है जबकि लोकसभा चुनावों में वर्तमान अधिकतम सीमा 25 लाख रुपये को बढ़ाकर 40 लाख किया जाना है।
भ्रष्टाचार का दलदल:
इस प्रस्तावित खर्च सीमा में आज के समय में औसत प्रत्याशी के लिए न तो विधानसभा चुनाव लड़ना संभव है और न ही लोकसभा चुनाव। इसलिए निर्वाचन प्रक्रिया में उतरने के साथ राजनीति के प्रवेश द्वार पर ही उन्हें खर्च का असत्य विवरण पेश करने के लिए भ्रष्टाचार को गले लगाना होगा। हां, चुनावों में पानी की तरह पैसे बहाने वाले धनबली उम्मीदवारों के लिए यह आसानी जरूर हो जाएगी कि अब उन्हें आंकड़ों की बाजीगरी में अपेक्षाकृत कम मशक्कत करनी पड़ेगी।
अपर्याप्त कदम:
अपवादों को छोड़ दें तो यह सर्वविदित है कि राजनीतिक दल और उम्मीदवार वर्तमान और प्रस्तावित चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा से कई गुना ज्यादा धन खर्च करते हैं। ऐसे हालात में चुनाव सुधार के तहत यह प्रस्तावित कदम ही गैरजरूरी और अपर्याप्त लगता है। लोकसभा और विधानसभा में चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा में बढ़ोतरी बड़ा मुद्दा है।
दल चाहें तभी लगेगी लगाम
राजनीति का ध्येय जो भी रहा हो, वर्तमान युग में इसे पैसे और दबंगई का योग ही माना जाता है। ऐसे में चुनाव सुधार की बड़ी कवायद तो शुरू हुई है लेकिन आशंकाएं बरकरार हैं। खासतौर पर राजनीतिक दलों के रुख से आशंकाएं तेज होती है। अकेले चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने से ही सब कुछ दुरुस्त नहीं हो सकता है। फर्क तभी आ सकता है जब राजनीतिक दल बदलें वरना हर कवायद नाकाफी होगी। चुनावी मैदान में उतरने वाले किसी उम्मीदवार से पूछकर देखें कि कितना खर्च किया। अक्सर पसीना पोछते हुए स्पष्ट कर देंगे कि उसकी सीमा नहीं। ऐसे में अब खर्च सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव तो ठीक है लेकिन पर्याप्त नहीं है।
जमीनी हकीकत पर तय हो सीमा
हमेशा व्यापक चुनाव सुधारों की पक्षधर रही है। चुनाव खर्च की सीमा के बारे में चुनाव आयोग को जमीनी हकीकत को देखते हुए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अभी इस तरह का कोई प्रस्ताव न तो सरकार की तरफ से और न ही चुनाव आयोग की तरफ से सामने आया है, लेकिन जब आएगा, तब भाजपा पूरी गंभीरता से विचार करेगी। आयोग को यह ध्यान रखना चाहिए कि आदर्श आचार संहिता से ऐसे बंधन न लगे जिससे चुनाव प्रचार के पारंपरिक तरीके खत्म हो जाएं। जब इनको नियंत्रित किया जाएगा तो गैर पारंपरिक तरीके अपनाने की मजबूरी भी सामने आती है। हाल में बिहार के विधानसभा चुनाव में न हिंसा हुई और न बूथ कब्जाए गए। धनबल का प्रकोप भी थमा और जनता ने अपराधियों पर भी रोक लगाई। सरकार व आयोग को इन सब बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। एक सुझाव सरकार द्वारा चुनाव खर्च उठाने का भी है, लेकिन वह कितना हो इसके लिए सिर्फ आदर्शवादिता पर नहीं जाना होगा, बल्कि जमीनी धरातल पर सोचना होगा।
महंगाई से चुनाव भी हुए महंगे
चुनावों में खर्च की सीमा तय करने को लेकर आयोग जितने भी सुधार कर रहा है, उससे कहीं अधिक जरूरी है कि उन सुधारों पर कड़ाई से अमल किया जाए। महंगाई के हाहाकार में भला चुनाव कैसे बच सकता था। चुनाव के महंगा होने का असर प्रत्याशियों के प्रचार पर पड़ता है। इसीलिए खर्च सीमा का अतिक्रमण आम हो गया है। लेकिन इस पर पाबंदी लगाने के पहले इसकी सीमा को बढ़ाना उचित कदम है। चुनाव में पैसे के बोलबाले पर अंकुश लगाने के लिए आयोग ने पहले इसे सीमा में बांधने की कोशिश की और अब इसे बढ़ाने की सोच रहा है। चुनावों में बड़ी राजनीतिक पार्टियां निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक खर्च कर रही हैं। बड़ी पार्टियां भी इस तरह के भ्रष्टाचार को और बढ़ावा दे रही हैं। चुनावों का खर्च सीधे तौर पर सरकार को उठाना चाहिए। इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए जाने चाहिए। चुनाव भ्रष्टाचार से निपटने के लिए इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है। ऐसा न होने की वजह से ही चुनावों में हजारों करोड़ रुपये का काला धन खर्च होता है, जिससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है।
सिर्फ सीमा बढ़ाने से नहींहोगा सुधार
जनतंत्र में जब तक चुनावों में धन की भूमिका कम नहीं होगी, जन हमेशा पीछे रहेगा। और जब जन पीछे रहेगा तो तंत्र के ठीक चलने का सवाल ही नहीं है। लिहाजा चुनावी राजनीति, प्रक्रिया व नतीजे की धन पर निर्भरता कम करना सबसे जरूरी है। महंगाई बढ़ी है। चुनावी खर्च बढ़ाया जा सकता है, लेकिन उससे चुनाव सुधारों का मकसद नहीं पूरा हो सकता, क्योंकि प्रक्रियागत, व्यवस्था व व्यावहारिक खामियों का यह महज एक हिस्सा है। इसलिए जब तक माफिया, अपराधियों और परोक्ष रूप से बड़े पैमाने पर धन खर्च को एक साथ रोकने के प्रभावी उपाय नहीं होंगे, इससे कुछ खास भला नहीं होगा।
(जागरण ब्यूरो)
20फरवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख नेताओं की राय पढ़ने के लिए क्लिक करें.
20फरवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख खर्चे के चर्चे पढ़ने के लिए क्लिक करें.
20 फरवरी को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख कायदा-कानून पढ़ने के लिए क्लिक करें.
Read Comments