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यह पब्लिक है, सब जानती है

मुद्दा
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पिछले चुनावों के मूल्यांकन से स्पष्ट होता है कि आम मतदाता सूझबूझ से काम लेता है। किसी भी प्रजातांत्रिक देश में चुनाव वह अवसर होता है जब जनता सरकार का मूल्यांकन करती है। राजनीतिक दल लोगों को रिझाने की कोशिश करते हैं। इस मुहिम के दो स्वरूप हमारे सामने आते हैं। एक ओर राजनीतिक दल अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को लोगों के सामने पेश करते हैं और उनसे वोट की अपेक्षा करते हैं। इसे सकारात्मक प्रचार अभियान कहा जा सकता है। दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां सरकार की नाकामियां लोगों के सामने रखकर उनसे वोट प्राप्त करने की कोशिश करती हैं। इसे नकारात्मक प्रचार अभियान कहा जा सकता है।


इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दो साल में संप्रग और कांग्र्रेस का रिकॉर्ड बहुत प्रभावशाली नहीं रहा है। समय-समय पर नए घोटालों के सामने आने से सरकार की छवि को ठेस पहुंची है। एक आम अवधारणा बनती जा रही है कि सरकार लकवे का शिकार हो गई है। जनता की याद्दाश्त क्षणिक होती है। आज जो महत्वपूर्ण दिखाई देता है कल लोग उसे भूल जाते हैं। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसको सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती। आने वाले चुनाव में मध्यम वर्ग और नौजवान तबका प्रभावशाली होगा। यही वर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का हिस्सा रहा है। आम आदमी का इस मुद्दे से उतना सरोकार नहीं है इसलिए वह किस हद तक चुनाव में इस मुद्दे को तूल देगा, कहना कठिन है।


एक आम अवधारणा है कि इस देश के मतदाता सीधे-साधे लोग हैं जिन्हें किसी भी तरफ लुभाया जा सकता है। यह एक निराधार अवधारणा है। पिछले चुनावों का मूल्यांकन करें तो स्पष्ट हो जाता है कि आम मतदाता सूझबूझ से काम लेता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी व्यवस्था व्यक्ति केंद्रित है, लेकिन व्यक्ति समुदाय से जुड़ा है। वोट का निर्णय सामूहिक रूप से लिया जाता है।


सभी पार्टियां जेब में कुछ हथकंडे रखती हैं जिन्हें चुनाव के समय इस्तेमाल किया जाता है। यकीनन जैसे-जैसे चुनाव करीब आएंगे संप्रग सरकार भी ऐसे ही हथकंडों का इस्तेमाल करेगी। देखना यह है कि वे कितने कारगर साबित होते हैं और संप्रग को फिर से सत्ता के कितने नजदीक पहुंचाने में सक्षम होते हैं?

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अभी समय है !


सरकार

अपने कल्याण और हितों को सुरक्षित रखने के लिए जनता ने जिस संप्रग-दो सरकार को चुनकर सत्ता सौंपी, हाल ही में उसके कार्यकाल के चार साल पूरे हुए। इस तरह संप्रग सरकार ने लगातार नौ साल शासन में रहने की उपलब्धि हासिल की। इस समयावधि के दौरान सरकार की बागडोर अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ रही।


साख

बीते नौ साल के दौरान सरकार की गिनती की तथाकथित उपलब्धियों और अनगिनत नाकामियों के पासंग में कई गुने का अंतर हो चला है। हर मोर्चे पर सरकार की विफलता की कहानी देखी व सुनी जा रही है। बीच-बीच में हुए बड़े और चर्चित घोटालों ने सरकार पर लगी स्याह कालिख को और गाढ़ा किया है। सत्ता के शीर्ष लोगों के बीच मतभेद की बातें सरकार के खाते में ऋणात्मक बोनस की तरह दर्ज हो चुकी हैं। ऐसे में सरकार के प्रति जनता के मन में सहानुभूति की बात सोचना भी बेमानी है।


सवाल

वर्षों का कलंक कुछ महीनों या अल्पकाल में धुले जाने के उद्धरण से इतिहास भरा है। चुनाव अभी दूर है। सरकार के पास तब तक का वक्त है। इस थोड़े से वक्त में सरकार अपनी कार्यशैली में बदलाव से सकारात्मक नतीजे पा सकती है। बदलाव दिखेगा तो जनता का दिल भी पसीज सकता है। उसका हृदय परिवर्तन हो सकता है, लेकिन उसके लिए सरकार को जनता का गिला शिकवा दूर कर उसका विश्वास जीतना होगा। अब देखना यह होगा कि सरकार बचे-खुचे अल्प समय में कौन सा और किस तरह का मरहम निकालती है जिससे जनता के सभी घावों को भरा जा सके। ऐसे में अंतिम समय में जनता के अनमोल मतों का कर्ज चुकाने के लिए सरकार से कारगर और अचूक रणनीति की अपेक्षा करना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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जनहित में पीछे नहीं हटेगी सरकार


सरकार के सकारात्मक कदमों पर बात करने के बजाय विपक्ष नकारात्मकता फैला रहा है। भ्रष्टाचार पर शोर मचाकर और संसद बाधित कराकर भाजपा न सिर्फ देश को गुमराह बल्कि उसके साथ गद्दारी भी कर रही है। संसद यदि बाधित नहीं होती तो खाद्य सुरक्षा विधेयक और भूमि अधिग्रहण विधेयक आज पारित हो चुका होता। भाजपा संसद क्यों बाधित करा रही है, यह जनता को समझना चाहिए। वह एक तीर से दो निशाने साध रही है। भ्रष्टाचार के मामलों में अगर बहस होगी तो बात दूर तलक जाएगी। उनकी सच्चाई जनता को पता चलेगी। इसीलिए वे आरोप लगाकर भागते हैं। भाजपा भ्रम में है निश्चित रूप से हम ये दोनों विधेयक पारित कराएंगे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इन दोनों विधेयकों से भावनात्मक लगाव है। इसके अलावा भी शासन और पारदर्शिता से जुड़े कानूनों को बनाने और कदम उठाने में सरकार पीछे नहीं हटेगी। कांग्रेस सभी तबकों के विकास की सोच रखती है। इसी क्रम में अल्पसंख्यकों के लिए सच्चर कमेटी के तमाम सुझावों को लागू किया गया है। इसी तरह सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि कृषि के क्षेत्र में है।


70 फीसद लोग किसानी करते हैं। संप्रग सरकार ने सात लाख करोड़ रुपये सस्ते दर में कृषि कर्ज देने का फैसला किया। शिक्षा का अधिकार दिया गया। 18 करोड़ लोगों को मनरेगा के तहत जॉबकार्ड दिए गए। 56 रुपये से 128 रुपये न्यूनतम मजदूरी हो गई। अन्न का न्यूनतम समर्थन मूल्य का अधिकतम 60 रुपये छह साल में राजग ने बढ़ाए। वहीं हमने गेहूं व धान का मूल्य लगभग दोगुना बढ़ाया। इन सकारात्मक कदमों पर बात करने के बजाय विपक्ष नकारात्मकता फैला रहा है। विपक्ष भ्रष्टाचार के जो मुद्दे उठा रहा है, चाहे सीडब्ल्यूजी, 2जी या कोल ब्लॉक आवंटन के मुद्दे सभी संप्रग एक के हैं। मगर वास्तव में भ्रष्टाचार के ये तीन प्रमुख मुद्दे राजग सरकार के दौरान शुरू हुए थे। सीडब्ल्यूजी आर्गेनाइजिंग कमेटी का अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को कांग्रेस ने नहीं बनाया था। वह इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष होने के नाते बने। हालांकि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तत्कालीन खेल मंत्री सुनील दत्त को ऑर्गनाइजिंग कमेटी का अध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन भाजपा की आपत्ति के बाद यह संभव नहीं हो सका। 2जी में कांग्रेस कहीं सम्मिलित ही नहीं थी। 2जी लाइसेंस आवंटन के समय मंत्रिमंडल की बैठक में मैं अकेला राज्यमंत्री था। उस समय मैं दयानिधि मारन और ए राजा के साथ बैठा, लेकिन मुझ पर तो कोई आरोप नही। वास्तव में इसकी शुरुआत भी राजग के समय हुई। उसी 2जी मामले में राजग कार्यकाल के समय रामिवलास पासवान हटाए गए थे। अब राजग के स्वर्गवासी तत्कालीन मंत्री ने दूरसंचार मंत्री का पद अपने पास रख लिया। उस दौरान चुनाव आचार संहिता लागू रहते समय निर्णय लिया। कोयला खदान आवंटन का तीसरा मामला। स्टैंडिंग कमेटी की अभी रिपोर्ट आई है कि उदारीकरण के बाद कोयला खदान आवंटित 1993-2009 के बीच पारदर्शिता नहीं रही। इसमें छह साल राजग की सरकार थी। संप्रग ने विज्ञापन देकर आवंटन किया। जबकि राजग ने तो चुपचाप कर दिया और वह भ्रष्टाचार की बात करते हैं। चौथा मामला सीबीआइ का है। सरकार की संवेदनशीलता देखिए कि चिदंबरम ने इसके लिए मंत्रिमंडलीय समूह बना दिया। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में विनीत नारायण बनाम भारत सरकार मामले में सीबीआइ को स्वायत्त बनाने का निर्देश दिया था। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और 18 मार्च 2004 तक वही रहे। मगर तब उसको स्वायत्त बनाने का कोई प्रयास नहीं किया|


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