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राष्ट्रीय एकता संप्रभुता पर पड़ सकता है असर

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राष्ट्रीय एकता संप्रभुता पर पड़ सकता है असर

-ए सूर्यप्रकाश

(वरिष्ठ पत्रकार और फेलो, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन)


क्षेत्रीय दलों के उभार से देश का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया है। अस्थाई गठबंधन ने केंद्र को कमजोर और लाचार कर दिया है। हाल ही में आए सभी ओपिनियन पोल द्वारा अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के पतन और आंध्र प्रदेश में सूपड़ा साफ होने की भविष्यवाणी के बीच पार्टी ने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया है। चुनाव में अपनी संख्या बढ़ाने के लिए वह कुछ भी करने को आमादा दिख रही है। इससे देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ गई है।


पहले से ही कई नए राज्यों की मांग चल रही है। कांग्रेस के इस फैसले से पृथकतावादी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा और कमजोर केंद्र इस तरह के आंदोलनों से उपजी ताकतों से निपटने में समर्थ नहीं होगा। करीब 60 वर्षों तक तेलंगाना मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाले रहने के बाद कांग्रेस ने कई कारणों से गलत समय पर इस निर्णय को लिया है। यद्यपि 30 साल पहले इस तरह के छोटे राज्यों के गठन के औचित्य को सही ठहराया जा सकता था लेकिन अब नहीं। दर्जनों क्षेत्रीय दल उभर कर आए हैं और केंद्र में अस्थाई गठबंधन चल रहे हैं। इन सबका सबसे भयावह परिणाम यह हुआ है कि इसने केंद्र को बेहद कमजोर और लाचार कर दिया है। वास्तविकता यह है कि संस्कृति, धर्म और भाषा के आधार विविध समाज वाले इस देश को एकजुट बनाए रखने के लिए मजबूत केंद्र की दरकार है। आजादी के बाद के शुरू के 30 वर्षों तक ऐसा चला लेकिन कांग्रेस के लगातार भ्रष्ट और अवसरवादी होने के चलते क्षेत्रीय नेताओं ने उसकी कमियों का लाभ उठाया। उन्होंने क्षेत्रीय भावनाओं को भड़काया और कांग्रेस से लड़ने के लिए छोटी राजनीतिक इकाइयों के गठन को प्रोत्साहन दिया। नतीजा हम सबके सामने है।


1957 की दूसरी लोकसभा में 12 राजनीतिक दलों के संसद सदस्यों का प्रतिनिधित्व था। अब 50 वर्षों बाद लोकसभा में 42 राजनीतिक दल हैं। जिस तरह से चीजें चल रही हैं उससे हमें आगे 60 या उससे अधिक राजनीतिक दलों के लिए तैयार रहना चाहिए। 1996 से ही छोटे, क्षेत्रीय दलों के साथ केंद्र में गठबंधन सरकार चल रही है। विगत 17 वर्षों का अनुभव बताता है कि उनकी अदूरदर्शी राजनीति के चलते शासन के स्तर में लगातार गिरावट हुई है। उनमें से कईयों ने प्रधानमंत्रियों को ब्लैकमेल किया है और अक्षमता एवं भ्रष्टाचार बढ़ा है। इन सबने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री के ऑफिस को कमजोर किया है। ऐसे में 50 राज्यों के भारत और गठबंधन सरकारों में इस तरह की ब्लैकमेल राजनीति की कल्पना कीजिए? देश की एकता ही खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में तेलंगाना की मांग को स्वीकार करने का यह सर्वाधिक अनुपयुक्त समय है।


छठे दशक में भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया गया। नेहरू सरकार ने फजल अली के नेतृत्व में राज्य पुनर्गठन (एसआरसी) आयोग गठित किया। 1955 में इस आयोग की आपत्तियों के बावजूद नेहरू सरकार ने एकीकृत तेलुगु राज्य आंध्र प्रदेश का गठन कर दिया। 55 वर्षों बाद संप्रग सरकार द्वारा गठित जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा के नेतृत्व वाली कमेटी भी आंध्र प्रदेश के विभाजन के पक्ष में नहीं थी।


इस प्रकार 1955 और 2013 दोनों ही अवसरों पर कांग्रेस ने देश में इसके परिणामों की परवाह किए बिना वह किया जो उसके लिए मुफीद था। 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग ने  कहा था कि अलगाव तभी किया चाहिए जब यह लोगों और देश के कल्याण में हो। इस तरह के निर्णय लेने से पहले राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखना चाहिए। लेकिन पिछले चंद दिनों की घटनाओं के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि राष्ट्र की एकता और अखंडता कांग्रेस की प्राथमिकता में नहीं है। यह बस किसी भी तरह तेलंगाना क्षेत्र में कुछ लोकसभा सीटें जीतना चाहती है।

…………..


गठन प्रक्रिया

भारतीय संविधान के अनुच्छेद तीन में नए राज्य के गठन की शक्तियां संसद को दी गई हैं। नए राज्य के गठन की प्रक्रिया के निम्न चरण होते हैं


1. संबंधित राज्य विधानसभा में अलग राज्य बनाए जाने संबंधी प्रस्ताव पारित किया जाता है

2. प्रस्ताव पर केंद्रीय कैबिनेट की सहमति ली जाती है।


3.  अहम मसलों पर विचार के लिए मंत्रि समूह का गठन किया जाता है।

4. मंत्रि समूह की सिफारिश पर केंद्र विधेयक का एक मसौदा तैयार करता है जिस पर कैबिनेट की दोबारा स्वीकृति ली जाती है।


5. सिफारिशों को राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति इसे संबंधित विधानसभा में उसके सदस्यों की राय जानने के लिए भेजते हैं। राय जानने के लिए राष्ट्रपति द्वारा एक निश्चित समयावधि तय की जाती है।

6. बिल के मसौदे को वापस केंद्र के पास आने पर राज्य के विधायकों की राय को शामिल करते हुए गृह मंत्रालय एक नया कैबिनेट नोट तैयार करता है।


7. राज्य पुनर्गठन विधेयक को केंद्रीय कैबिनेट की स्वीकृति के लिए अंतिम रूप से भेजा जाता है। तत्पश्चात इसे संसद में पेश किया जाता है। जहां इसे दोनों सदनों से साधारण बहुमत से पारित किया जाना होता है।

8. राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद नया राज्य गठित हो जाता है।


आजादी से पहले की व्यवस्था

ब्रिटिश राज के दौरान कमोबेश पूरा भारत 600 शाही रियासतों में विभक्त था। आजादी के बाद इन राज्यों को भारत या पाकिस्तान के साथ शामिल होने की आजादी दी गई। भौगोलिक और धार्मिक कारकों के आधार पर कुछ राज्य भारत से तो कुछ पाकिस्तान के साथ जुड़े। उस दौरान सबसे समृद्ध रियासतों में से एक हैदराबाद ने स्वतंत्र रहने का फैसला किया, लेकिन भारत सरकार ने सेना भेजकर उसे अपने में मिला लिया। 1947-50 के दौरान इन शाही रियासतों को प्रांतों में तब्दील कर दिया गया। स्टेट ऑफ मैसूर, हैदराबाद, भोपाल और बिलासपुर जैसी चुनिंदा रियासतें स्वतंत्र प्रांत बने।


आजादी के बाद बदलाव

26 जनवरी, 1950 को संविधान के अस्तित्व में आने के साथ ही भारत व्यापक स्वायत्ता प्राप्त राज्यों (पूर्व में जिन्हें प्रांत कहा जाता था) और केंद्र शासित प्रदेशों का संघ बना।

संविधान के तहत उस दौरान तीन प्रकार के राज्य थे।


पार्ट ए स्टेट (9): ये वे राज्य थे जिन्हें ब्रिटिश भारत में पूर्व गवर्नर प्रांत का दर्जा प्राप्त था। इनमें असम, बंगाल, बिहार, बांबे, मध्य प्रदेश, मद्रास, ओडिशा, पंजाब और उत्तर प्रदेश।

पार्ट बी स्टेट (8): पूर्व में शाही रियासतें थीं। हैदराबाद, सौराष्ट्र, मैसूर, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश, और राजस्थान आदि।

पार्ट सी स्टेट (10): इनमें वे स्टेट शामिल थे जिनमें से कुछ पूर्व में शाही रियासतें थीं और कुछ चीफ कमिश्नर द्वारा शासित प्रांत थे।


भाषाई आधार पर गठन

छठे दशक में तेलुगु बोलने वाले लोगों द्वारा नए राज्य की मांग से इसकी शुरुआत हुई। पोट्टी श्रीरामालु ने इस मांग के समर्थन में आमरण अनशन शुरू किया। अनशन के 56वें दिन श्रीरामालु की मौत हो गई जिससे वहां हिंसा भड़क उठी। भाषाई आधार पर पृथक राज्य के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया। आयोग की रिपोर्ट पर राज्य पुनर्गठन कानून, 1956 पारित किया गया। एक नवंबर, 1956 से लागू इस कानून के तहत पार्ट ए, बी और सी स्टेट्स के अंतर को समाप्त कर 14 राज्य और कुछ केंद्र शासित क्षेत्र बनाए गए।


राज्यों का मौजूदा स्वरूप

1960 में भाषाई आधार पर बांबे से अलग होकर महाराष्ट्र और गुजरात बने। इसके बाद अलग राज्य बनाने के मानदंड में जातीय समूह को भी शामिल करते हुए असम से अलग करके नगालैंड भारतीय नक्शे में शामिल हुआ।


1966 में पंजाब से अलग होकर दो नए राज्यों हरियाणा और हिमाचल प्रदेश का गठन किया गया। 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा को राज्य का दर्जा मिला। मिजोरम, गोवा और अरुणाचल 1987 में राज्य बने। 2000 में उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड अस्तित्व में आए।


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