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लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई
–प्रो वसीम बरेलवी
(शायर एवं हिंदी भाषा विकास संस्थान के उपाध्यक्ष)
यह किसका हाथ है काट क्यों नहीं देते जो सारे शहर की शमें बुझाए देता है थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद दंगे रहे हैं, क्योंकि उन्हें रोकने की मुसलसल कोशिश नहीं हुई। सभी अच्छी तरह जानते हैं कि दंगे में नुकसान एक का नहीं होता। फिर भी खुद को सांप्रदायिक उन्माद में बहने से रोक नहीं पाते। पल भर का गुस्सा सदियों तक पछताने का सबब बन जाता है। इसलिए क्योंकि जेहन में जहर पहले से भरा होता है। अभी भी वक्त है, इन खराब हालात से पार पाया जा सकता है। उसके लिए सरकारों को ईमानदार होना होगा। सियासी नफे नुकसान की बिसात पर फैसले लेने की आदत बदलनी पड़ेगी। समाज के उस बड़े वर्ग को आगे आना पड़ेगा, जो मुल्क का भला तो सोचता है लेकिन कशमकश में फंसकर पीछे खड़ा रह जाता है।
उसे आगे लाने के लिए चंद कोशिशें करनी होंगी, जैसी कि हमने बरेली में दंगा होने के बाद की। परंपरागत शांति समितियों पर जिम्मेदारी डालने के बजाय दोनों संप्रदाय के युवाओं की टीम खड़ी की है। इस टीम के बूते ऐसे 95 फीसद लोगों के साथ मीटिंग करके उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराया जा रहा है, ताकि 5 फीसद खुराफातियों को नाकाम किया जा सके।
तुमने मेरे घर न आने की कसम खाई तो है, आंसुओं से भी कहो आंखों में आना छोड़ दें इंसान चाहे जैसा भी हो लेकिन उसकी फितरत मुहब्बत है, नफरत नहीं। कमी यह है कि दोनों संप्रदाय का मध्यम वर्ग एक-दूसरे से दूर है। तहजीब और समाज दोनों ही स्तर पर करीब नहीं आ सके। पुरुषों में तो डायलॉग हुए लेकिन महिलाएं कभी एक साथ नहीं बैठीं। मुजफ्फरनगर से लेकर सूबे के तमाम शहरों में ऐसे बहुत से मुहल्ले हैं, जिनमें पूरी जिंदगी गुजरने के बाद एक संप्रदाय की महिला, दूसरे संप्रदाय की महिला के घर नहीं गई।
इन दूरियों ने तरह-तरह की गलतफहमी पैदा कर दी। बच्चों में गलत संस्कार आते गए। मां की गोद से ही ऐसी बातें जेहन में पेवस्त होती गईं, जिनके नतीजे खराब शक्ल में सामने आ रहे हैं। लिहाजा दोनों संप्रदाय की महिलाओं में डायलॉग कराकर भ्रांतियां दूर करानी होंगी। यह काम त्योहार के मौके पर हो सकता है। होली हो, दीपावली या फिर ईद, इसे एक जगह इकट्ठा होकर पिकनिक के तौर पर मनाना होगा। इस काम की शुरुआत बरेली में जल्द करने भी जा रहे हैं। सुझाव मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव को भी दे आए हैं। अगर इस पर अमल हुआ तो फिर कह सकते हैं-
दीये अपने लिए रौशन किए थे
उजाला दूसरों का हो गया।
………….
टूटता तानाबाना
सांप्रदायिकता की वजह से विभाजित होने वाला भारत शायद दुनिया का अकेला मुल्क है। आजादी के काफी पहले ही इस विषबेल के बीज पड़ गए थे :
देश में पहले बड़े सांप्रदायिक दंगे की घटना अगस्त, 1893 में मुंबई में हुई। उसमें करीब 100 लोग मारे गए और 800 घायल हो गए
1921 और 1940 के बीच हालात विषम रहे। मसलन 1926 में कोलकाता में मुहर्रम के दौरान हुए दंगे में 28 लोग मारे गए
विभाजन के तत्काल बाद 1948 में भीषण दंगे हुए। बंगाल में नोआखाली और बिहार के कई गांव उस दौर में सर्वाधिक प्रभावित हुए
आजाद भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पहला बड़ा दंगा 1961 में जबलपुर में हुआ।
अहमदाबाद दंगे (1969)
हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए सांप्रदायिक दंगे में करीब एक हजार लोग मारे गए। उस दौर में कांग्रेस पार्टी में नेतृत्व के लिए इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच घमासान मचा हुआ था। माना जाता है कि देसाई के समर्थक मुख्यमंत्री की छवि को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर दंगों को भड़काने का षड़यंत्र रचा गया था। उसके बाद 1979 में जमशेदपुर और अलीगढ़ एवं 1980 में मुरादाबाद में सांप्रदायिक सौहाद्र्र का माहौल बिगड़ा
सिख दंगे (1984)
31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हो गई। उनकी मृत्यु के घोषणा के बाद उस दिन शाम करीब छह बजे के आस-पास दंगे भड़क गए। 15 दिनों तक खून की होली खेली गई। करीब 2,700 मारे गए। हजारों घायल हो गए। दिल्ली में कांग्रेस नेता एचकेएल भगत और सज्जन कुमार के संसदीय क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के प्रेस सेकेट्री रहे तरलोचन सिंह के मुताबिक राष्ट्रपति जैल सिंह चाहते थे कि सेना स्थिति को संभाल ले लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने उनके फोन कॉल ही नहीं लिए।
मेरठ दंगे (1987)
21 मई को शुरू हुए दंगे करीब दो महीने तक चले। इसमें पीएसी की भूमिका पर भी सवाल खड़े हुए। करीब 350 लोग मारे गए।
भागलपुर दंगा (1989)
रेशमी कपड़ों के उत्पादन के लिए मशहूर बिहार का भागलपुर भी दंगों के दाग से अछूता नहीं रहा। 1989 में विश्व हिंदू परिषद की रामशिला यात्रा पर हुए पथराव के बाद दो समुदाय आमने-सामने आ गए। इसके बाद प्रशासनिक अक्षमता से स्थितियां बदतर हो गईं। 24 अक्टूबर को कफ्र्यू के दौरान भीड़ पर पुलिस फायरिंग में 12 लोगों की जान चली गई। इसके बाद तो पुलिस पर हमले के साथ ही दोनों पक्षों के बीच खूनी संघर्ष का सिलसिला 19 जनवरी 1990 तक चला। इन दंगों में करीब एक हजार लोगों ने अपनी जान गंवाई। पचास हजार लोग पलायन कर गए और साढ़े ग्यारह हजार घर आग के हवाले कर दिए गए।
मुंबई दंगा (1992)
अयोध्या में विवादित ढांचा गिरने के बाद मुंबई में सांप्रदायिक दंगा भड़क गया। दिसंबर-जनवरी के बीच इसमें 1,788 लोग मारे गए और करोड़ों की संपत्ति का नुकसान हुआ।
गुजरात दंगा (2002)
27 फरवरी 2002 को अयोध्या से लौट रहे 58 कारसेवकों को गोधरा में ट्रेन की बोगी में जिंदा जला दिया गया। इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप भड़की सांप्रदायिक हिंसा में सैकड़ों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। 21वीं सदी में मानवता के माथे पर ऐसे मामले किसी कलंक की तरह हैं।
15 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘तंत्र में फूंकना होगा मंत्र’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.
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