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प्रजातंत्र
ऐसी शासन प्रणाली जो जनता द्वारा और जनता के लिए होती है। इसकी खूबियों में इतनी महक है कि कोई भी बिना इसकी तरफ आकृष्ट हुए नहीं रह सकता है। लिहाजा आजादी के बाद हमने भी अंग्र्रेजों की वेस्टमिंस्टर प्रणाली की तर्ज पर देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को वरीयता दी। समय बीतता गया, हमारा लोकतंत्र समृद्ध होता गया, लेकिन इसके साथ कई सवाल भी खड़े होते गए।
प्रश्न
कुछ लोग अभी देश में लोकतांत्रिक प्रणाली के अपने शैशवकाल में होने की दुहाई देते हुए भले ही इसकी खामियां छिपाने की कोशिश करें, लेकिन हमें आजाद हुए छह दशक से ज्यादा बीत चुके हैं। माना जाता है कि परिपक्वता आने या एक निश्चित अंतराल के बाद किसी भी चीज में ठहराव आ जाता है। वह एक बोझिल परंपरा जैसी लगने लगती है। लिहाजा इस प्रक्रिया में बदलाव की मंशा बलवती होती दिखती है। ऐसा ही सवाल देश की मौजूदा लोकतांत्रिक प्रणाली को लेकर उठने शुरू हो चुके हैं। वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह की हालिया नई किताब में लोकतंत्र को शासन की सबसे खराब प्रणाली बताया गया है।
पहल
लोकतांत्रिक प्रणाली को सबसे अच्छी प्रणाली इसलिए माना जाता है क्योंकि इसका कोई विकल्प नहीं मौजूद है। शासन की वर्तमान प्रणालियों में इसकी श्रेष्ठता बरकरार है। हालांकि यह बात उन देशों या लोकतंत्र के लिए सच साबित होती है जहां इस प्रणाली के सभी मानकों को वास्तविक रूप से लागू किया या अपनाया जाता है। दुनिया के ज्यादातर देश कहने के लिए लोकतंत्र होने का दम तो भरते हैं लेकिन हैं नहीं। एक लोकतंत्र की सभी गुण दशाएं वहां अनुकूल नहीं होती हैं। कमोबेश यही स्थिति हमारे देश की भी है। ऐसे में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की सभी दशाओं को समृद्ध करना या फिर शासन की नई प्रक्रिया अपनाना हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है।
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शासन की सबसे खराब प्रणाली
हमारी संसदीय कार्यप्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति मेरे मन में संदेह बढ़ता जा रहा है। जिन सिद्धांतों पर हमारी संसद और लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी है, क्या उनकी जगह अब खोखली रस्मों ने अख्तियार कर ली है? क्या वास्तव में हमारी सरकार हमारा प्रतिनिधित्व कर रही है? पहले सभ्य देशों की श्रेणी में भारत कहां खड़ा था और अंतरराष्ट्रीय मामलों में हमारी भूमिका क्या है?
प्रत्येक संसदीय सत्र में संयुक्त बैठक, भाषण और सरकार के कार्यक्रमों की घोषणा की जाती है लेकिन दुर्भाग्य से अब उनमें कुछ भी प्रेरणादायक नहीं होता? हमारी संसदीय कार्यप्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति मेरे मन में संदेह बढ़ता जा रहा है।
हमारी परिभाषा में संसद स्वतंत्रता की संरक्षक, कुशासन और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने वाली संस्था है, लेकिन अब हालात ऐसे नहीं रहे। ‘नियंत्रण और संतुलन’ के बीच सामंजस्य बिगड़ गया है। अब सरकार के पास केवल नियंत्रण की शक्ति बची है जिसकी मदद से वह अपनी अक्षमता छिपाती है।
यह एक संसदीय संकल्पना रही है कि संसद में बैठने वाले हम लोग जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और सरकार के विचारों को अर्थपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं। अब जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सत्ताधारी दल ऐसा करने में समर्थ नहीं हैं। इसका कारण पूरा देश जानता है। ऐसे में विपक्ष से क्या आशा की जा सकती है? मैं इस बात से हैरान हूं कि पिछले कई दशकों से ये विषय लगातार जस के तस बने हुए हैं। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि हममें बदलाव की योग्यता नहीं है या फिर वर्तमान अव्यवस्था को हमने स्वीकार कर लिया है? कुल मिलाकर लोकतंत्र शासन की सबसे खराब प्रणाली है। दुर्भाग्यवश जब कभी हम तंत्र को सुधारने की बात करते हैं तो वोटों की गणना के अन्य तरीकों या सीटों के अनुपात या शासन की वास्तविक व्यवस्था की चर्चा करते हैं।
– (हालिया रिलीज लेखक की किताब ‘द ऑडासिटी ऑफ ओपिनियन – रिफ्लेक्शंस, जर्नीज एंड म्यूजिंग्स’ से उद्धृत)
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