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संसदीय कामकाज में गिरावट अब एक यथार्थ है और इससे कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता। भारत सरीखे देश में ऐसी विधायिका की भी कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें बिना किसी व्यवधान के कामकाज होता रहे, लेकिन संसद का ठप हो जाना तो लोकतांत्रिक भाव की पराजय है। संसद के न चल पाने का मतलब है दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विचारों को समझने-सुनने से इन्कार करने के साथ ही समन्वय के रास्तों को बंद कर दिया है।
यह स्थिति दोनों पक्षों की जिद और अहं का परिचायक है। एक-दूसरे पर अपनी शर्तें थोपने का अर्थ है, बिना बहस खुद को सही और दूसरे को गलत घोषित कर देना। आखिर जब किसी मुद्दे पर संसद के बाहर विचार विनिमय हो सकता है तो संसद के अंदर क्यों नहीं? पक्ष-विपक्ष अपने-अपने रवैये को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना छोड़कर यदि विचारों के जरिये टकराएं तो उनकी भी गरिमा बढे़गी और संसद की भी। वैसे भी यह बहस के जरिये आसानी से तय हो सकता है कि संसद में किसके आग्रह को प्राथमिकता मिले।
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जरूरी है सामंजस्य
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए वह समाज से जुड़ा होता है। जहां जुड़ाव होता है वहीं हित भी जुड़ा होता है। अपना न सही तो जिससे जुड़ाव है उसी का। लिहाजा उस हित को साधने के लिए कई बार कथनी करनी में भेद दिख जाता है। यह जरूरी नहीं है कि इसे इरादतन किया जाए, यह अनजाने में भी हो सकता है। कथनी और करनी में गहरे फर्क को मिटाने या कम करने के लिए बहुत सारे सामंजस्य बैठाने की जरूरत होती है। यह शक्ति बहुत ही दुर्लभ लोगों में होती है। सिद्धांत और व्यवहारिकता का भेद मिटाना बहुत आसान नहीं है। सैद्धांतिकता में लोच नहीं होती है। यह दृढ़ होती है। इसलिए इस पर चलने वाले के लिए फूल नहीं सिर्फ कांटे ही कांटे होंगे जबकि व्यवहारिकता में कई सहूलियतें निहित होती हैं। इसी के चलते अपने कार्यदायित्व को संपन्न करने में कई बार शार्टकट का सहारा ले लिया जाता है। जैसी ही किसी नतीजे को पाने के लिए छोटा रास्ता अपनाया जाता है वैसे ही कथनी और करनी में अंतर आ जाता है।
लोगों को अपनी कथनी और करनी में अंतर को पाटने के लिए अपनी जरूरतों, तृष्णाओं और हितों को कम करना होगा। कई बार लोग स्वांत: सुखाय के लिए इस तरह के नमूने पेश करते हैं। सार्वजनिक जीवन में यह बातें जगजाहिर हो जाती हैं। मान लीजिए कोई ऐसी शख्सियत है. जिसका समाज पर गहरा असर है। जिसके हर एक शब्द को लोग ब्रह्म वाक्य मानते हैं। ऐसे हालात में खुद की छवि को बनाए रखने के लिए उस व्यक्ति द्वारा अच्छी-अच्छी बात करना मजबूरी बन जाता है जबकि उसके अंतर्मन में यह बात चल रही होती है कि शायद इन चीजों पर मैं भी अमल न कर सकूं।
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