Menu
blogid : 4582 postid : 1990

सवाल सुरक्षा का

मुद्दा
मुद्दा
  • 442 Posts
  • 263 Comments

सर्वोपरि सुरक्षा: इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटजिक स्टडीज [आइआइएसएस] की ताजा रिपोर्ट मिलिट्री बैलेंस के अनुसार साल 2010 के लिए दुनिया के शीर्ष दस देशों का रक्षा बजट 1100 अरब डॉलर से पार कर चुका है। इसका सीधा सा मतलब है कि केवल हम ही नहीं, सभी देश अपनी सीमाओं को अभेद्य बनाने के लिए सैन्य खर्च में बिल्कुल कोताही नहीं कर रहे हैं। शीर्ष दस देशों के कुल रक्षा बजट में 60 फीसदी हिस्सेदारी केवल अमेरिका की है। इस देश का रक्षा बजट 693 अरब डॉलर है। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था के अनुपात में सैन्य खर्च की बात की जाए तो सऊदी अरब शीर्ष पर है। यह अपनी जीडीपी का 10 फीसदी रक्षा पर खर्च करता है।


सर्वव्यापी चिंता: भारत के पास चिंता के पर्याप्त कारण हैं। एक तो इसका दो परमाणु ताकत पड़ोसी देशों पाकिस्तान और चीन के साथ अनसुलझा बड़ा सीमा विवाद है। कारगिल युद्ध के बाद इस देश को अपनी सैन्य तैयारियों का आकलन हुआ। लिहाजा अपने हथियार जखीरे को संतुलित करने के लिए इसने दुनिया के विभिन्न देशों से बड़े रक्षा सौदे करने शुरू किए। हालांकि इन रक्षा सौदों में भी इसका ध्यान केवल 14,880 किमी थल सीमा पर ही केंद्रित रहा। 26/11 को मुंबई पर आतंकी हमले ने सरकार को देश की असुरक्षित समुद्री सीमा की ओर ध्यान दिलाया। लिहाजा 5,422 किमी लंबी समुद्री सीमा, 1,197 आइलैंड्स और 2.01 वर्ग किमी में फैले विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र की सुरक्षा के लिए कदम उठाने शुरू किए।


हथियारों की होड़: आमतौर पर मान्यता है कि हथियारों के कारोबार जैसा कोई पेशा नहीं होता। कोई भी धंधा न तो इतना घातक है और न ही इतना चोखा। दुनिया के सभी देश अपने तथाकथित दुश्मन को सबक सिखाने के लिए आधुनिक हथियार और रक्षा तकनीकों का संग्रह कर रहे हैं। वर्तमान में सालाना वैश्विक रक्षा खर्च 1500 अरब डॉलर को पार कर चुका है। अपने भारी भरकम रक्षा बजट के साथ भारत भी पिछले दस साल से हथियारों की इस होड़ में शामिल हो चुका है। यह दुनिया के हथियार खरीदने वाले प्रमुख देशों में से है। उभरती हुई शक्तियों में से अगर चीन को छोड़ दिया जाए तो हम दुनिया के सबसे बड़े हथियार खरीददार देश हैं।


आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार कारगिल युद्ध के बाद से पिछले एक दशक के दौरान देश ने 50 अरब डॉलर के रक्षा समझौतों पर मुहर लगाई। इन समझौते के तहत लड़ाकू विमान, युद्धपोत, टैंक, मिसाइल, रडार और अन्य युद्धक सामग्री हासिल कर अपने जखीरे को मजबूत करना है। इसके लिए पिछले पांच साल के दौरान ही रक्षा मंत्रालय ने दो लाख करोड़ लागत वाले करीब 500 समझौते पर हस्ताक्षर किए। यही नहीं, आने वाले समय में करीब 30 अरब डॉलर कीमत के समझौते किए जाने की उम्मीद है।


बड़ा बाजार: आने वाले दिनों में कुछ बड़े रक्षा सौदों के साथ दुनिया के प्रमुख हथियार सौदागरों की ललचाई निगाहें अरबों डॉलर के भारतीय बाजार पर टिकी हैं। पिछले पांच दशक से इस भारतीय बाजार में बहुत कुछ बदलाव आ चुका है। हालांकि पहले की तरह अब भी रूस हमारा सबसे पसंदीदा हथियार निर्यातक देश बना हुआ है, लेकिन अमेरिका और यूरोप की तरफ झुकाव हमारी बदलती प्राथमिकता का द्योतक है।सोवियत संघ [वर्तमान में रूस] 1961 की शुरुआत में भारत ने सोवियत संघ से मिग लड़ाकू विमानों को खरीदना शुरू किया। नेहरू युग के दौरान तो हम जेट, टैंक और युद्धपोत से लेकर सारी आयुध सामग्रियां इसी देश से आयात करते थे। मिग के बाद सुखोई आया जिसके आधुनिक संस्करण का निर्माण 4.8 अरब डॉलर समझौते के तहत यहीं किया जा रहा है। रूसी रक्षा सामानों के सबसे बड़े उपभोक्ता हम आज भी एडमिरल गोर्शकोव समेत अरबों डॉलर का समझौता किए हैं।


britainब्रिटेन

1979 में भारतीय वायुसेना ने रूसी विमानों को दरकिनार करते हुए अपने बेड़े में जगुआर को शामिल किया। जल्दी ही कई सी हैरियर और सी हॉक ब्रिटिश लड़ाकू विमान भी भारतीय वायुसेना में शामिल किए गए।


ये दोनों लड़ाकू विमान ब्रिटेन से खरीदे पहले युद्धपोत आइएनएस विक्रांत से उड़ान भरते हैं।


french-flag-buttonफ्रांस

ब्रिटेन के तुरंत बाद फ्रांस भी भारतीय रक्षा बाजार में उतरा। भारत ने फ्रांस के 40 मिराज-2000 लड़ाकू विमानों को अपने बेड़े में शामिल किया। बाद में 20 ऐसे और विमान सेना में शामिल किए गए।


स्वीडन

इस देश से हुआ सौदा भारतीय रक्षा समझौतों के इतिहास में काफी चर्चित रहा। 1986 में राजीव गांधी सरकार ने स्वीडन की एबी बोफोर्स कंपनी से 1.4 अरब डॉलर का समझौता किया। इसके तहत कंपनी को 410 होवित्जर तोपों और अन्य सामानों की आपूर्ति करनी थी। हालांकि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते यह समझौता भले ही काफी विवादास्पद रहा हो, लेकिन कारगिल युद्ध के समय इन तोपों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध की।


अमेरिका

50 और 60 के दशक में इस देश से भारत के रक्षा समझौते अस्तित्व में नहीं थे, लेकिन दोनों देशों के रक्षा संबंधों को तब बल मिला जब 2005 में इनके बीच रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर हुए। बढ़ती और बहुआयामी जरूरतों को पूरा करने के लिए साल 2009 में अमेरिका से 5.7 अरब डॉलर के रक्षा समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। बदलती दुनिया के परिदृश्य में अमेरिका अपने हथियारों को भारत में बेचने के लिए हरसंभव कोशिश से पीछे नहीं हट रहा है।


जनमत

chart-1क्या चीन की तुलना में पाकिस्तान आज भी हमारे लिए बड़ा खतरा है?


हां: 69%

नहीं: 31%


chart-2क्या देश के हथियार जखीरे को मजबूत रखना आज की जरूरत है?


हां: 97%

नहीं: 3%


आपकी आवाज

पड़ोसी देशों के पास हमसे अधिक हथियार होगा तो वे हमें धमका सकते हैं। हमारी संप्रभुता के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। इसलिए आधुनिक हथियारों का जखीरा तैयार करना बहुत जरूरी है- अवधेश सिंह20@याहू.कॉम]


जिस तरह से भारत के खिलाफ बार-बार पाकिस्तान की ओछी गतिविधियां देखने को मिलती हैं, उससे साफ है कि वह हमारे लिए चीन से ज्यादा खतरनाक है. [संतोषएलएलबी @याहू.कॉम]

हमारे लिए बड़ा खतरा चीन है। हमारे एक पूर्व रक्षामंत्री भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। पाकिस्तान केवल मुंह चिढ़ाने वाली ओछी हरकतों को ही अंजाम दे सकता है। हमारी सारी रक्षा तैयारियां चाहे वह अग्नि-पांच का विकास हो या रूस से एडमिरल गोर्शकोव जैसे विमान वाहक युद्धपोत की खरीददारी हो, अब चीन को ध्यान में रखकर की जा रही है. [अखिलेश1996@जीमेल.कॉम]



Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh