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सूचना का अधिकारः घटता भरोसा

मुद्दा
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2005 में आरटीआइ कानून के अमल में आने के बाद से ही इसके क्रियान्वयन को लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सूचना आयुक्त शैलेष गांधी द्वारा आने वाले दिनों में इस कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करने से मामला फिर गर्म हो गया है।

अस्त्र: आरटीआइ यानी सूचना का अधिकार कानून। देश के इतिहास में अब तक के सबसे कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाला अस्त्र। आम नागरिकों को न्याय दिलाने का एक असरदार हथियार। यह कानून कई मामलों में सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खोल चुका है। देश के कई प्रमुख घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले सार्वजनिक करने में इसी की भूमिका रही है।


हश्र: शैलेष गांधी के अनुसार सरकारी तंत्र के रवैये से इस बेहतरीन कानून के प्रति लोगों का विश्वास डगमगाने लगा है। व्यावहारिक रूप से सही दिखने वाले इनके कई आरोप निश्चित रूप से इस कानून के अस्तित्व और मंशा पर प्रश्न चिह्न लगाने वाले हैं। ऐसे में लोगों के हाथ की लाठी बन चुके इस कानून को बचाना और इसकी धार वापस लाना हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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shailesh gandhiप्रभावी कानून पर मंडराता खतरा

शैलेष गांधी (पूर्व सूचना आयुक्त)

सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून लगभग सभी शक्तिशाली लोगों को चुनौती देता है। इसलिए इसके सामने तीन गंभीर खतरे हैं। इनमें सबसे बड़ा खतरा सूचना आयोगों से ही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि सात साल पुराने इस कानून के कई मामले सूचना आयोगों में दो-तीन सालों से लंबित पड़े हैं। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो अगले पांच वर्षों में इस तरह के लंबित मामलों की अवधि तीन-पांच साल हो जाएगी। ऐसे में आम आदमी का इससे मोहभंग हो जाएगा और वह इससे उसी तरह दूर हो जाएगा जिस तरह न्यायिक और अद्र्ध-न्यायिक प्रक्रिया से वह दूर है।


ऐसी दशा में आरटीआइ कानून केवल सूचना आयोगों और आयुक्तों के लिए रह जाएगा और आम जनता के लिए उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कई आयोग खुद ही पारदर्शी नहीं हैं। सूचना आयुक्तों की चयन प्रक्रिया दोषपूर्ण और मनमानी है। मेरा ही चयन अचानक और एकपक्षीय तरीके से किया गया। यह अधिकांश आयुक्तों के चयन पर लागू होता है। जो हाल अनुसूचित जाति आयोग, महिला आयोग और बाल अधिकार आयोग का है उसी तरह सूचना आयोग भी मेरे जैसे वरिष्ठ नागरिकों के लिए रोजगार का एक साधन बनकर रह गया है। ये अपने मकसद को पूरा करने के बजाय वरिष्ठ नागरिकों के लिए क्लब बनकर रह गए हैं। इनमें जवाबदेही का अभाव है।


इससे भी गंभीर बात यह है कि कई सूचना आयोगों में दो-तीन साल से कई मामले लंबित हैं। वर्तमान में केंद्रीय सूचना आयोग में करीब 20 हजार मामले लंबित हैं। इनको निपटाने में औसतन आठ-नौ महीने का वक्त लगेगा। दुर्भाग्य से जिस ढर्रे से काम हो रहा है उससे इस औसत का कोई मतलब नहीं रह जाता।


दूसरा खतरा सरकार की तरफ से है। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री तक कह चुके हैं कि आरटीआइ हाथ से निकलता जा रहा है। यह भावना ब्यूरोक्रेसी तक पहुंच रही है। सरकार सूचनाओं को देने में अड़ंगा लगाती है। आरटीआइ को तीसरा खतरा न्यायिक प्रणाली है। कई महत्वपूर्ण आदेशों पर स्टे हो जाता है। जिस तरह से अदालतें काम करती हैं उससे एक मामला पांच-10 साल तक खिंच जाता है। यदि यही सिलसिला जारी रहा और शक्तिशाली सरकारी महकमे और सत्ताधारी लोग अपने खिलाफ गए निर्णयों पर स्टे लेते रहे तो इससे आरटीआइ पर खतरा स्वाभाविक है।

हालांकि इन सबका भी समाधान किया जा सकता है। जब मैंने केंद्रीय सूचना आयोग में ज्वाइन किया था तो एक आयुक्त सालाना औसतन 1500-2000 केस निपटाता था। अब यह संख्या बढ़कर 3000 हो चुकी है। मैंने ही पिछले साल 5900 केस निपटाए। इसी तरह यदि हर आयुक्त सालाना 5000 मामले निपटाना शुरू कर दे तो अगले पांच वर्षों में कोई समस्या नहीं रहेगी।


70-80% : शिकायती या व्यक्तिगत सूचना के लिए किए जाने वाले आवेदन

10-15% : भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए किए जाने वाले आवेदन

5-10% : किसी को परेशान करने के लिए किए जाने वाले आवेदन

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सूचना का अधिकार

नागरिकों को अधिकार संपन्न बनाना, सरकार की कार्य प्रणाली में पारदर्शिता तथा उत्तरदायित्व को बढ़ावा देना, भ्रष्टाचार को कम करना तथा लोकतंत्र को सही अर्थों में लोगों के हित में काम करने मेंं सक्षम बनाना है। इस अधिनियम ने एक ऐसी शासन प्रणाली सृजित की है जिसके माध्यम से नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के नियंत्रण में उपलब्ध सूचना तक पहुंचना सहज हुआ।


किसी भी स्वरूप में कोई भी सामग्री ‘सूचना’ है। इसमें इलेक्ट्रॉनिक रूप वाले अभिलेख, दस्तावेज, ज्ञापन, ई-मेल, मत, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, लागबुक, संविदा, रिपोर्ट, कागजपत्र, नमूने, मॉडल, आंकड़े संबंधी सामग्री शामिल है।


नागरिक को सूचना प्राप्त करने के लिए लिखित रूप से आवेदन करना होगा। यह आवेदन डाक, इलेक्ट्रॉनिक अथवा व्यक्तिगत रूप से भेजा जा सकता है। सूचना मांगने के लिए आवेदन सादे कागज पर भी किया जा सकता है।


सूचना मांगने का निर्धारित शुल्क 10 रुपये रखा गया है लेकिन आरटीआइ एक्ट की धारा 27 और 28 के मुताबिक राज्य या सक्षम प्राधिकारी फीस में बढ़ोतरी कर सकते हैं।


सूचना अधिकारी से यह अपेक्षित है कि वह एक वैध आवेदन प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर आवेदक को सूचना मुहैया करवाए। यदि मांगी गई सूचना व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो यह अनुरोध प्राप्त होने के 48 घंटों के भीतर उपलब्ध कराई जाएगी। यदि सूचना अधिकारी निर्धारित अवधि के भीतर सूचना के अनुरोध पर अपना निर्णय देने में असफल रहता है तो यह माना जाएगा कि सूचना देने से इंकार कर दिया गया है।


सूचना न मिलने अथवा इससे असंतुष्ट होने की दशा में वरिष्ठ अधिकारी के पास प्रथम अपील की जा सकती है। ऐसी अपील निर्णय प्राप्त होने के 30 दिन के भीतर की जानी चाहिए। अपीलीय प्राधिकारी अपील प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर अथवा आपवादिक मामलों में 45 दिनों के भीतर अपील का निपटान कर सकते हैं।


यदि निर्धारित अवधि के भीतर प्राधिकारी आदेश जारी करने में असफल रहता है अथवा अपीलकर्ता के आदेश से संतुष्ट नहीं होने की दशा में वह द्वितीय अपील कर सकता है। ऐसी अपील निर्णय प्राप्त होने के 90 दिन के भीतर केंद्रीय सूचना आयोग में की जा सकती है।


शिकायतें

यदि आवेदन को संबंधित अधिकारी ने स्वीकार करने या आगे बढ़ाने से इंकार कर दिया है अथवा अधिक फीस की मांग करने पर केंद्रीय सूचना आयोग में शिकायत की जा सकती है।


केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा अपीलों तथा शिकायतों का निपटान

केंद्रीय सूचना आयोग अपीलों तथा शिकायतों का निपटान करके अपने निर्णय की सूचना अपीलकर्ता और पहले अपीलीय अधिकारी को देता है। यदि आयोग अपील अथवा शिकायत पर निर्णय लेने से पहले पक्षों की सुनवाई का चयन करता है तो सुनवाई की तारीख से कम से कम सात दिन पहले वह अपीलकर्ता अथवा शिकायतकर्ता को सुनवाई की तारीख की सूचना देगा।


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