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सोशल मीडियाः जरूरत या जहमत

मुद्दा
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प्लेटफॉर्म-आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। कई खोजों का आज भले ही दुरुपयोग किया जा रहा हो लेकिन जब इनकी खोज की गई थी तो उसका एक मात्र उद्देश्य जनकल्याण था। डायनामाइट और क्लाशिनकोव इसके उदाहरण हैं। तकनीकी समृद्धि मानव सभ्यता के विकास की परिचायक है। सभ्यता का विकास आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव को दर्शाता है। मीडिया के नये अवतार सोशल मीडिया की आम और सार्वभौमिक स्वीकारोक्ति इस खोज की सार्थकता बताने के लिए काफी है।


पहलू-हर चीज के दो पहलू होते हैं। अच्छा और बुरा। सोशल मीडिया भी इससे अछूता नहीं है। इसमें तमाम खूबियां है लेकिन एक बुराई इसकी सभी अच्छाइयों पर भारी पड़ने लगती है। बुराई की भलाई पर जीत दिखने लगती है। यह सब हमारी कमजोरियों के चलते होता दिखता है। असम हिंसा से जुड़े फर्जी और नफरत फैलाने वाले कुछ संदेशों से हम सहम जाते हैं। हमारी सरकार सोशल मीडिया के इस प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध लगाने की कसरत करने लगती है। अगर हमने उन संदेशों का वहीं तीखा विरोध किया होता तो शायद स्थिति जुदा होती।


प्रश्न-असम हिंसा से जुड़ी अफवाहें फैलाने वाले संदेशों के बाद सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। एक ऐसा प्लेटफॉर्म जहां पर किसी भी नकारात्मक विचार का उसी के अंदाज में विरोध करने की सहूलियत हो, को प्रतिबंधित करना एक तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने जैसा है। ऐसे में आधुनिक परिवेश में सोशल मीडिया की भूमिका की पड़ताल हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

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आनंद प्रधान (एसोसिएट प्रोफेसर, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन)
आनंद प्रधान (एसोसिएट प्रोफेसर, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन)

बदरंग चेहरे का गुस्सा आईने पर

असम में हिंसा और उसके बाद देश भर में सांप्रदायिक-कट्टरपंथी संगठनों द्वारा शुरू किए गए सांप्रदायिक घृणा और विद्वेष भरे अभियान को रोकने में नाकाम रही संप्रग सरकार ने खिसियाहट में सोशल मीडिया पर गुस्सा उतारना शुरू कर दिया है। उसने इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को आनन-फानन में 300 से ज्यादा वेब पेज को ब्लॉक करने का निर्देश दिया।


सरकार के इस कदम से यह संदेश गया कि सरकार सांप्रदायिक घृणा और भड़काऊ प्रोपेगंडा को रोकने के नाम पर अपने विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश कर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी समाज में सांप्रदायिक घृणा फैलाने और लोगों को भड़काने का लाइसेंस नहीं है और कोई भी समाज इसकी इजाजत नहीं दे सकता है।


इसके बावजूद सरकार जिस तरह से सांप्रदायिक घृणा और भड़काऊ प्रचार को रोकने के नाम पर सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की कोशिश कर रही है, उसे अधिकांश लोगों के लिए पचा पाना मुश्किल हो रहा है। यह किसी से छुपा नहीं है कि सरकार सोशल मीडिया से नाराज और चिढ़ी हुई है। पिछले कई महीनों से वह इसे काबू में करने की कोशिश कर रही है। यह भी कि सोशल मीडिया से उसकी नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संगठित करने में उसकी बड़ी भूमिका रही है।


हालांकि सरकार शुरू से यह दावा करती रही है कि वह सोशल मीडिया पर नियंत्रण नहीं लगाना चाहती है और चाहती है कि सोशल मीडिया से जुड़ी एजेंसियां खुद ही कंटेंट को जांच-परख कर अपलोड करें, लेकिन सरकार की मंशा शुरू से संदेह के घेरे में थी। गूगल की ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट बताती है कि उसे भारत सरकार और दूसरी सरकारी एजेंसियों से पिछले साल जून से दिसंबर के बीच कुल 101 निर्देश मिले जो उससे पहले की अवधि में मिले निर्देशों की तुलना में 49 फीसद ज्यादा थे। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें घृणा फैलाने वाले संदेशों की तुलना में मानहानि से संबंधित सामग्री को हटाने की मांग दोगुनी से ज्यादा थी। सरकार के आलोचकों का आरोप है कि मानहानि के नाम पर वह उसकी पोल खोलने वाले कंटेंट को हटाने की कोशिश करती रही है।


बुनियादी बात यह है कि सोशल मीडिया सिर्फ माध्यम भर है। उसकी असली ताकत यह है कि वे करोड़ों लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने, खुलकर अपनी राय जाहिर करने की आजादी दे रहे हैं। मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के पारंपरिक कारपोरेट मीडिया को मैनेज करने में कामयाब सरकारें इसे मैनेज करने में नाकाम रही हैं। इसीलिए वे इसे नियंत्रित करने के बहाने ढूंढने में लगी हुई हैं।


जाहिर है कि कोई भी लोकतांत्रिक और स्वतंत्रचेता समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता है। अक्सर बदरंग चेहरों को सारा दोष आईने में दिखता है लेकिन क्या इस आधार पर आईने को तोड़ने की इजाजत दी जा सकती है? अफसोस और चिंता की बात यह है कि सरकार भी आईने को तोड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है।

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संजय श्रीवास्तव (प्रोफेसर सोशियोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ, दिल्ली विश्वविद्यालय)
संजय श्रीवास्तव (प्रोफेसर सोशियोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ, दिल्ली विश्वविद्यालय)

दर्द देने वाले के पास ही है इलाज

‘सोशल मीडिया’ शब्द दो बेहद महत्वपूर्ण और संबंधित संकल्पनाओं को एक साथ जोड़ता है। सोशल मीडिया का उद्भव इस युग में विशेष अहमियत रखता है जब सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों ने मानवीय संबंधों पर गंभीर दबाव डाला है। इस प्रकार सोशल (मानव जीवन) और मीडिया (मानवीय संबंधों को स्थापित करने का माध्यम) का एक साथ आना महत्वपूर्ण घटनाक्रम है।


सोशल मीडिया, मीडिया के अन्य माध्यमों से कुछ मामलों में अनोखा है। यह समान रुचि के विषयों पर समुदायों के बीच संवाद स्थापित करता है। सिर्फ यही नहीं, विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद और विचार-विमर्श भी करता है। सोशल मीडिया एक अड्डा, डाइनिंग रूम टेबल और कॉफी हाउस है। यह ध्यान देने वाली बात है कि यह महिलाओं और अपेक्षाकृत गरीबों के लिए सुविधाजनक है जिनकी इन स्थानों तक ज्यादा पहुंच नहीं है। इसमें वास्तविक सामाजिक जगत बनने की संभावनाएं हैं। हमारे समाज में सोशल मीडिया का रोल इसलिए भी अहम है क्योंकि जीविका और शिक्षा के लिए एक से दूसरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर होने वाले गमन में इसकी बड़ी भूमिका है। संचार का यह साधन ‘मोबाइल’ जनसंख्या के लिए सुविधाजनक होता है।


असम हिंसा के हालिया संदर्भ में सोशल मीडिया के बेजा इस्तेमाल को लेकर रिपोर्टों में कहा जा रहा है कि सरकार ने ट्विटर से कई अकाउंट बंद करने को कहा है। मीडिया के प्रभाव से संबंधित कुछ निश्चित तथ्य हम जानते हैं और ढेर सारी बातों पर कयास लगाते हैं। अब तक इस तरह के कोई गंभीर प्रमाण नहीं मिले हैं कि किसी भी तरह के मीडिया की वजह से सामाजिक असंतोष पनपा हो। यही कहा जा सकता है कि मीडिया में समाज की प्रतिध्वनि ही दिखाई देती है। यद्यपि सोशल मीडिया को सभी समस्याओं का हल नहीं माना जा सकता किंतु इस मामले में राज्य के हस्तक्षेप की सलाह को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। यह नहीं कहा जा सकता कि मीडिया द्वारा आत्म नियंत्रण ही सबसे बेहतरीन समाधान है लेकिन इतिहास में राज्य द्वारा सुझाए समाधानों ने विचार-विमर्श की प्रक्रिया में रोड़े लगाने का काम ही किया है। सिविल सोसायटी की प्रतिध्वनि में राज्य भी अंग होना चाहिए। इसको सार्वजनिक बहस का विकल्प बनाने की अनुमति नहीं देना चाहिए।


सोशल मीडिया विचारों की अभिव्यक्ति का प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराता है। यह एक ऐसा फोरम है जो विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को जोड़ता है। इससे एक शक्तिशाली प्रभाव पैदा होता है। इस प्रकार सोशल मीडिया संवाद और विचार-विमर्श का एक प्लेटफॉर्म है जो सामाजिक सोच को प्रभावित करने की योग्यता रखता है।



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