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Muzaffarnagar Riots: हादसे हो रहे हैं साजिश के शिकार

मुद्दा
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समस्या

जिस सांप्रदायिकता के रोग के चलते हमारे मुल्क को कई राष्ट्रों में बंटने पर विवश होना पड़ा, आजादी के पैंसठ साल से अधिक समय बीत जाने के बाद भी वह हमें बीमार कर रहा है। किश्तवाड़ फिर नवादा और अब मुजफ्फरनगर में बिगड़ा सामाजिक सौहार्द्र इसकी एक बानगी है। इन दंगों में हम सबने अपने अपनों को खोया। दरबदर की सजा हम सबको मिली। माल असबाब हमारे जले। दुख, जिल्लत, परेशानी किसी एक समुदाय को नहीं उठानी पड़ी, इसके असर से दोनों पक्ष प्रभावित हुए। नतीजा यह निकला कि करे कोई भरे हम सब।


साजिश

आजादी के बाद से ही थोड़े-थोड़े अंतराल पर देश का सामाजिक तानाबाना तार-तार होता रहा है। कुछ तथाकथित सांप्रदायिक लोगों में पैशाचिक प्रवृत्ति उन्माद मारती है और पूरे के पूरे क्षेत्र, जिले, प्रदेश और राष्ट्र को अपने लपेटे में ले लेती है। सब कुछ गंवाते हुए हम सब इसे नियति का खेल मानकर फिर से जीवन जीने की कोशिश में जुट जाते हैं। कभी हम दंगों को लिए सांप्रदायिक ताकतों को कुसूरवार ठहराते हैं तो कभी राजनेताओं और राजनीतिक दलों के वोट बैंक की राजनीति को जिम्मेदार बताकर अपने कर्तव्यों से इतिश्री कर लेते हैं।


समाधान

दरअसल गलती यहीं हो रही है। हम अपने अंदर नहीं झांक रहे हैं। हिंसा के नाजुक दौर में हम अपनी जिम्मेदारियों के उलट पानी की जगह आग में घी डालते आ रहे हैं। जिसमें सब कुछ स्वाहा होता जा रहा है। क्या चंद उन्मादी लोग आपको बरगला सकते हैं? क्या कुछ सांप्रदायिक लोग हमारी सोच और समझ को प्रभावित कर सकते हैं? क्या कुछ स्वार्थी नेता वोट बैंक के लिए आपका इस्तेमाल कर सकते हैं? नहीं… कभी नहीं। अगर आप अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनेंगे तो मुट्ठी भर लोग अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो सकते हैं। अमन चैन कायम रहेगा। सामाजिक सौहार्द्र बिगाड़ने वालों के मंसूबे कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे। उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी। ऐसे में समाज के हर व्यक्ति, वर्ग और समुदाय के अंदर ऐसी सोच और भावना को कायम करना आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।

…………..


हादसे हो रहे हैं साजिश के शिकार

प्रो इम्तियाज अहमद

(राजनीतिक समाजशास्त्री)


आधुनिक दंगों की प्रकृति और प्रवृत्ति बदल चुकी है। अब दंगे अकस्मात नहीं बल्कि योजना के तहत होते हैं। सांप्रदायिक दंगे पहले भी होते थे लेकिन पिछली सदी के आठवें दशक से दंगों की प्रवृत्ति और प्रकृति बदल गई। पहले दंगे सड़कों तक सीमित थे, किसी छोटे हादसे को लेकर उत्तेजित होकर लोग सड़कों पर आ जाते और मारा-मारी शुरू हो जाती। इन दंगों में कटार और बरछी के इस्तेमाल किए जाते। चूंकि दंगे सड़क तक ही सीमित रहते थे, इसलिए उन पर काबू पाना भी आसान था।


लोग बताते हैं कि कानपुर में 1946 के दौरान हुआ दंगा एक छोटे से हादसे से शुरू हुआ। एक लड़का जाली अठन्नी चलाने की ताक में था। खोटी अठन्नी चल गई तो खुशी से उत्तेजित होकर चल गई, चल गई कहता हुआ घर जाने लगा। लोग समझे दंगा शुरू हो गया है। गड़ासे और बर्छियां बाहर आ गई। कई मासूमों की जान गई ओर बाजार बंद हो गए। नवें दशक में दंगे सड़कों से हटकर घरों तक पहुंच गए। गड़ासे और बर्छी की जगह पेट्रोल और बम ने ले ली। दंगे प्लानिंग के साथ किए जाने लगे साथ ही उनका एकमात्र उद्देश्य सत्तर के दशक में संपन्नता का अनुभव कर रहे एक खास समुदाय की रीढ़ की हड्डी तोड़ना था। दंगों में जान और माली नुकसान के आंकड़ों का मूल्यांकन किया जाए तो इस बात की पुष्टि होती है।


संकीर्ण राष्ट्रवादी विचारधारा तो भारत में शुरू से रही थी। मुसलमानों में ऐसी प्रवृत्ति थी लेकिन बंटवारे के बाद उसके लिए कोई जगह नहीं बची और वह धीरे-धीरे खत्म होती गई। नब्बे के दशक में यह प्रवृत्ति हिंदू समुदाय के एक हिस्से में बहुत प्रबल हुई। कुछ नेताओं के उत्तेजक भाषण इस बात की पुष्टि करते हैं।


शायद रामजन्मभूमि आंदोलन का इतना प्रभाव नहीं होता अगर उसी समय मंडल आरक्षण लागू न होता। मंडल आरक्षण से हिंदू के उच्च वर्ग ने खतरा महसूस किया कि कहीं उनकी हैसियत छिन न जाए। मध्यम वर्ग ने भाजपा को इसलिए समर्थन किया कि शायद भाजपा निचले वर्ग की जाति के उबाल को रोकने में सफल होगी। इसलिए नहीं कि वह भाजपा की धर्म आधारित सियासत की  पकड़ में था। तब से भाजपा कोशिश में लगी रहती है कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद को सहारा बना कर आक्रामक राजनीति खड़ी कर सके। जिस तरह से मंजे हुए नेताओं को किनारा करके मोदी को सामने लाया जा रहा है, वह इस बात कि पुष्टि करता है कि मोदी की भाव-भंगिमा और अपने भाषणों में गर्जना इस बात की दलील है कि आरएसएस सोचती है कि आक्रामक राजनीति करके ही भाजपा सत्ता में आ सकती है।


दंगों का चुनाव की राजनीति से गहरा संबंध है। मैंने मुरादाबाद दंगों के बाद लिखा था कि दंगे हादसा नहीं होते जबकि योजनाबद्ध तरीके से कराए जाते हैं, जिसका वोट की राजनीति से संबंध होता है। चुनाव और वोट नाम की एक पुस्तक में एक अमेरिकी विद्वान ने लिखा है कि जब चुनाव करीब आते हैं तब दंगों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती है।


खासतौर पर हमारे देश में जहां लोग अभी भी धर्म और जाति की बुनियाद पर वोट देते हैं। राजनीति और दंगों का संबंध और भी घनिष्ट और महत्वपूर्ण हो जाता है। राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए ऐसा समीकरण खड़ा करना चाहते हैं कि जिन समुदायों को उनका समर्थन मिलने वाला है उनको अपनी छतरी के नीचे लाया जा सके। और जिन पार्टी का वोट अन्य पार्टी को मिलना है उनमें विभाजन कराया जा सके। मुजफ्फरनगर में भी कुछ ऐसा ही हुआ है।


कुछ राजनीतिक दलों की समझ है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू-मुस्लिम के बीच बंटवारा हो, ताकि एक खास समुदाय के ज्यादा से ज्यादा वोट उनकी झोली में आ सके। आमतौर पर इस प्रक्रिया को ध्रुवीकरण का नाम दिया जाता है। इससे पहले भी इस हथियार का इस्तेमाल होता आया है।


समस्या यह है कि कोई भी राजनीतिक दल कितनी भी कोशिश कर ले, फिर भी कोई एक पूरा समुदाय उसके पक्ष में जाने वाला नहीं है। यह अलग बात है कि सत्ता धु्रवीकरण की राजनीति का ख्वाब छोड़ नहीं सकती और इस तरीके से पुन: राजनीति में आ नहीं सकती। हमें यह समझना चाहिए कि धु्रवीकरण की राजनीति दोधारी तलवार है। जिसमें नफा और नुकसान की पर्याप्त और बराबर की गुंजायश बनी रहती है।


15 सितंबर को प्रकाशित मुद्दा से संबद्ध आलेख ‘लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई’ कठिन राह पर चलना है मीलों’ पढ़ने के लिए क्लिक करें.


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