- 442 Posts
- 263 Comments
हौवा नहीं रहा सूखा, बस सही रहे नीति
देश इस वक्त पहले की तुलना में सूखे का सामना करने में अधिक सक्षम है। यदि हम अपनी जल नीति को सही दिशा में रख सकें तो देश कृषि और अर्थव्यवस्था को मौसमी सूखे की मार से बचा सकेगा।
अतीत में सूखे ने चार प्रमुख प्रभाव डाले हैं। पहला, यदि देश में पर्याप्त अनाज भंडार नहीं है तो इसने राष्ट्रीय खाद्य संकट की स्थिति उत्पन्न की है। लेकिन वर्तमान में हम अनाज के इतने बड़े भंडार पर बैठे हैं कि यदि उनका तत्काल उपयोग नहीं किया जाए तो वह इंसानी उपभोग के काबिल नहीं बचेगा। दूसरा, कृषि जीडीपी में कमी के असर से पूरी आर्थिक वृद्धि प्रभावित होती थी। जब देश की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी पांचवें हिस्से से भी कम हो तो यह चिंता भी बेमानी सी लगती है। तीसरा, सूखे की वजह से किसान की क्रय शक्ति क्षमता कम हो जाती है। इसके अलावा उपभोक्ता वस्तुओं के लिए ग्रामीण मांग कम हो जाती है। अब जब किसान के परिवार की आय में खेती से होने वाली आय की कमी होती जा रही है तो यह भी कोई बड़ी चिंता की बात नहीं है।
चौथा, इसकी वजह से किसी धारा, नदी और स्थानीय स्रोत के सूखने से कुछ क्षेत्रों में पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कुएं, वाटर सप्लाई स्कीम और रेनवाटर हार्वेस्टिंग के कारण अनेक ग्रामीण समुदायों को पहले की तरह पानी की कमी का सामना नहीं करना पड़ रहा है और अब उनको सुरक्षित पेयजल मिल रहा है। इसके अलावा टैंकर की सुविधा भी मौजूद है।
हमें कुछ नए तथ्यों की तरफ देखने की जरूरत भी है जो सूखे के प्रभाव को हल्का साबित करते हैं। पहला, आज देश की सुविकसित भूमिगत सिंचाई अर्थव्यवस्था सूखे से निपटने में पूरी तरह सक्षम है। हमारे करीब दो करोड़ निजी कुएं और ट्यूबवेल फसलों को जीवन रक्षक सिंचाई की सुविधा प्रदान करते हैं। जब खरीफ की बुवाई सिकुड़ती है तो कृषि रोजगार में गिरावट आती है और भूमिहीन परिवारों पर दबाव बढ़ता है। इसलिए मनरेगा के तहत सब्जियों और चारे को उगाने की व्यवस्था की जानी चाहिए क्योंकि सूखे के लक्षण दिखते ही सबसे पहले इन्हीं की कीमतों में बढ़ोतरी होती है।
दीर्घकालिक अवधि के लिए हमको सिंचाई नीति पर ध्यान देने की जरूरत है। संकट की घड़ी में बांध और नहर बहुत उपयोगी नहीं हैं। हमको यह विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि पिछले 50 साल में भूमिगत जल सोते सबसे महत्वपूर्ण जल भंडारण के रूप में उभरे हैं। यदि हम सही प्रबंधन करें तो भंडारण का यह सबसे बढ़िया तरीका हो सकता है। हम अपनी वर्तमान रणनीति में बदलाव से इस संकट से निजात पा सकते हैं।
इस आलेख के लेखक तुषार शाह
सीनियर फेलो, इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट
…………………………………………………….
भारतीय मौसम विभाग उर्फ लाल बुझक्कड़
देश में सूखा जोर पकड़ रहा है। और इसी के साथ एक बार फिर भारतीय मौसम विभाग का पूर्वानुमान गलत साबित होने की दिशा की ओर अग्र्रसर है। मानसून के करीब सामान्य रहने की उसकी भविष्यवाणी कोरी कल्पना साबित होने जा रही है। यह पहली बार नहीं हैं, मौसम विभाग का पूर्वानुमान अक्सर मानसून की वास्तविकता से मेल नहीं खाता है। इसके पूर्वानुमानों के इतिहास पर नजर डालें तो यह लाल बुझक्कड़ की कहावत को चरितार्थ करता दिखता है।
पूर्वानुमान
पावर रिग्रेशन और पैरामीट्रिक मॉडलों के कुल 16 तथ्यों के अध्ययन के बाद मौसम विभाग पूर्वानुमान करता है। इन 16 तथ्यों को तापमान, हवा, दाब और बर्फबारी के चार हिस्सों में बांटा गया है। चारों भागों के अलग-अलग क्षेत्रों व समयावधि में नमूने जुटाए जाते हैं। इन सारे तथ्यों को मिलाकर मानसून के पूर्वानुमान निकाले जाते हैं। मौसम विभाग द्वारा 1986 में पहला पूर्वानुमान किया गया था।
अनुमान से आगे-पीछे
(दीर्घावधि का औसत फीसद)
साल | अप्रैल (पूर्वानुमान) | सितंबर (वास्तविक) |
2009 | 96 | 75 |
2008 | 99 | 98 |
2007 | 93 | 105 |
2006 | 93 | 100 |
2005 | 98 | 99 |
2004 | 100 | 87 |
2003 | 96 | 102 |
(अनुमान में पांच फीसदी ऊपर-नीचे की गुंजायश)
बारिश की मात्रा
साल | वास्तविक | सामान्य |
2011 | 901.2 | 886.9 |
2010 | 910.6 | 893.2 |
2009 | 698.1 | 892.2 |
कमजोर कड़ी
’प्रशिक्षित स्टाफ की कमी
’कम क्षमता वाले सुपर कंप्यूटर
’संसाधनों पर बहुत कम निवेश
’वर्षामापी यंत्र की कमी
’आर एंड डी पर हमारा खर्च अन्य प्रमुख देशों के मुकाबले बहुत कम। अमेरिका 44, जापान 109 और कनाडा 10 अरब डॉलर के करीब अपने मौसम विभाग पर खर्च करता है। हमारे बजट से अधिक कई कंपनियां मौसम संबंधी सूचनाओं के लिए खर्च करती हैं।
विदेश में मौसम विभाग
ब्रिटेन : शक्तिशाली सुपर कंप्यूटर, ज्यादातर सूचनाएं मशीनीकृत कुछ सेमी ऑटोमेटिक और मैन्युअल
जर्मनी : मौसम केंद्रों का सबसे घना नेटवर्क, कई केंद्र शौकिया तौर पर लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं
ऑस्ट्रेलिया : एनईसी-एसएक्स-6सुपर कंप्यूटर मौसम मॉडल तैयार करने में सक्षम, सालाना बजट 25.45 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर
अमेरिका : आधुनिक डब्लूएसआर-88डीडाप्लर वेदर रडार तंत्र, एडब्लूआईपीएस प्रणाली का भी प्रयोग, सेना के अलग मौसम विभाग
………………………………………………………..
क्या 21वीं सदी में भारत में खेती किसानों के लिए जुआ है ?
90% हां
10% नहीं
क्या हमें परंपरागत कृषि एवं सिंचाई प्रणाली को बदलना चाहिए ?
97 % हां
3 नहीं
आपकी आवाज
देश में अब भी सिंचाई वगैरह की पर्याप्त व पक्की वैकल्पिक व्यवस्थाएं न होने के कारण खेती किसानों के लिए जोखिम भरी है- गौरीशंकर 1054@रेडिफमेड.कॉम
Read Comments