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भोजपुरी सिनेमा भोजपुरी फिल्मों का बाजार तेजी से बढ़ा है। पिछले छह-सात सालों में भोजपुरी सिनेमा ने कामयाबी के साथ विस्तार किया है। कुछ सालों से हर साल पचास से अधिक भोजपुरी फिल्में बन रही हैं। हालांकि अब घाटे और बाजार सिमटने की बातें की जा रही हैं, लेकिन हर महीने आधा दर्जन नई फिल्मों का मुहूर्त होता है। अभी तक भोजपुरी की अधिकांश फिल्में मनोज तिवारी, रवि किशन और निरहुआ के बीच ही बंट रही हैं। यदा-कदा कोई नया ऐक्टर हीरो के तौर पर नजर आ जाता है। अपने इस अनगढ़ विकास में ही भोजपुरी फिल्मों का एक पैटर्न बन गया है और ज्यादातर भोजपुरी फिल्में इस पैटर्न से बाहर नहीं निकल रही हैं।
हाल ही में अविजित घोष ने सिनेमा भोजपुरी शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में भोजपुरी सिनेमा के पचास साल के इतिहास, ट्रेंड, घटनाओं और मुख्य फिल्मों के विवरण के जरिए उन्होंने अच्छी विवेचना की है। उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के प्रेरक देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के साथ ही अभिनेता नाजिर हुसैन की आरंभिक कोशिश को सही परिपे्रक्ष्य में रखा है। उनकी पुस्तक भोजपुरी सिनेमा का गौरव-गान नहीं करती। यह स्थिति का ब्योरा देती है और कहीं-कहीं थोड़ा विश्लेषण करती है। चूंकि भोजपुरी सिनेमा पर यह पहली व्यवस्थित पुस्तक है, इसलिए इसका खास महत्व है।
अविजित घोष बिहार में आरा के निवासी हैं। भोजपुरी भाषा से लगाव और निकटता की वजह से ही उन्होंने यह सद्प्रयास किया है। कहीं न कहीं उन्होंने भोजपुरी सिनेमा की अस्मिता को परिभाषित करने की भी कोशिश की है। उन्होंने पिछले दस सालों में हिंदी सिनेमा में आए भटकाव और बिखराव से पैदा हुई शून्यता को भरने के लिए आई भोजपुरी फिल्मों को सही संदर्भ दिया है। अविजित का यह प्रयास सराहनीय है। भोजपुरीभाषी दर्शक और भोजपुरी सिनेमाप्रेमियों के लिए यह जरूरी पुस्तक है।
भोजपुरी सिनेमा का वर्तमान भले ही भ्रष्ट अवस्था में दिख रहा हो, लेकिन उसका अतीत गौरवशाली रहा है। भोजपुरी फिल्मों के आरंभिक निर्देशकों ने अपनी माटी, पहचान और भाषा को सही तरीके से फिल्मों में उकेरा। भोजपुरी समाज के लिए आवश्यक संदेश और मनोरंजन दिया। अगर आरंभिक दशक की फिल्मों को फिर से देखें, तो पाएंगे कि हर फिल्म में लेखक-निर्देशक की सामाजिक चिंता व्यक्त हुई है। भोजपुरी सिनेमा सिर्फ अश्लील और फूहड़ गानों का चित्रहार नहीं होता। इधर इस तरह की फिल्में ज्यादा देखने को मिल रही हैं। दरअसल, तात्कालिक लाभ के चक्कर में कई निर्माता बारिश के मेंढकों की तरह टर्राने लगे हैं। उन्हें न तो भोजपुरी समाज और भाषा की समझ है और न वे भोजपुरी संस्कृति को वे समझते हैं।
एक बार मनोज तिवारी ने किस्सा सुनाया था। उनके पास एक निर्देशक आया। उसने बताया किएक धांसू कहानी है उसके पास। एक गांव में एक ही मोहल्ले की गली में लड़का-लड़की रहते हैं। उनके बीच प्रेम होता है और फिर कैसे उनकेघर वाले इसका विरोध करते हैं। कहानी सुनने केबाद मनोज तिवारी ने उत्साही निर्देशक को समझाया कि भैया, भोजपुरी समाज के गांव में पूरे मोहल्ले के लड़के और लड़कियां भाई-बहन होते हैं। उनके बीच प्रेम की बात सोची भी नहीं जा सकती। अगर आपने यह फिल्म बनाई, तो दर्शक आपके खिलाफ हो जाएंगे। ऐसे अनेक किस्से सुनाए जा सकते हैं।
भोजपुरी सिनेमा में अनेक संभावनाएं छिपी हैं। भोजपुरी सिनेमा के निर्माताओं को गंगा, बलमा, देवर, भौजी आदि की सीमाओं से बाहर निकलकर इलाके की वास्तविक समस्याओं से रूबरू होना चाहिए। तभी भोजपुरी सिनेमा गर्व के साथ हिंदी सिनेमा के समकक्ष खड़ा होगा। वरना वही दीन-हीन भाव बना रहेगा और दूसरी भाषाओं के दर्शक भोजपुरी सिनेमा के प्रति हेय भाव बनाए रखेंगे। हम अपनी नजरों में उठने के बाद ही दूसरों की बराबरी कर सकते हैं।
Source: Jagran Cinemaaza
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