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गली गली चोर है: फिल्म समीक्षा

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MOVIE REVIEW: Gali Gali Chor Hai

आज भ्रष्टाचार का मुद्दा दिल्ली से लेकर देहरादून तक हावी है. भ्रष्टाचार की आग में आम आदमी की हालत तंदूर में भूने चिकन की तरह हो गई है. लेकिन वह करे भी क्या, आखिर है तो आम आदमी. “आम” आदमी यानि मैंगो मैन जिसे नेता और सरकारी अफसर चूस कर फेंक देते हैं. इस मुद्दे पर लोग भाषण तो बहुत देते हैं लेकिन कभी भी फिल्मकार इस मुद्दे को सही रंगों के साथ पर्दे पर पेश नहीं कर पाए. इस बार भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बनी “गली गली चोर है” अपने विषय और कहानी की वजह से पिछड़ी नजर आती है.


gali gali chor hai फिल्म: गली गली चोर है

कलाकार: अक्षय खन्ना, श्रेया सरन, मुग्धा गोडसे, सतीश कौशिक, मुरली शर्मा, अनु कपूर , विजय राज

निर्माता: विनय जैन, नितिन मनमोहन

निर्देशक: रूमी जाफरी

संगीत: अनु मलिक

रेटिंग: *


फिल्म की कहानी

कहानी भारत (अक्षय खन्ना) के ईर्द-गिर्द घूमती है. स्थानीय रामलीला का यह हनुमान एक बैंक में कैशियर है. बीवी और बाबूजी के साथ भोपाल में रह रहे भारत का जीवन स्कूटर के सहारे ठीक-ठाक चल रहा है. भारत अपनी स्कूटर पर टीचर पत्नी निशा (श्रेया सरन) को स्कूल छोड़ने जाता है. अब वहीं भारत की फैमिली में मुंबई के खुले विचारों वाली अमिता(मुग्धा गोडसे) रहने आई है.


भारत की फैमिली में खास मेहमान बनकर आई खूबसूरत अमिता ( मुग्धा गोडसे ) को हर वक्त इस बात का इंतजार रहता है कि भारत उसे स्कूटर पर कब ऑफिस छोड़ने जाएगा. अब इस बात को लेकर भारत की पत्नी निशा उस पर बहुत शक करती है.


लेकिन भारत की परेशानी है कि कई सालों से वह रामलीला में हनुमान बनते बनते थक गया है और अब वह राम बनना चाहता है लेकिन राम का रोल इलाके के एमएलए का भाई निभाता है जो रोल सही से करता भी नहीं है. लेकिन उसके खिलाफ बोलने की हिम्मत भारत में नहीं है.


इसी दौरान भारत के घर से एक पंखा चोरी हो जाता है जिसे पुलिस ढूंढ़ तो लेती है लेकिन उसे पाने के लिए भारत को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. और यहीं से शुरू होती है सिस्टम और भारत की जंग.


SEXY VEENA MALIKसमीक्षा

जाफरी मुख्य रूप से कॉमेडी फिल्में लिखते रहे. उन्होंने अभी तक दो फिल्में डायरेक्ट की हैं, जिन पर उनके प्रचलित लेखन और उनके निर्देशकों का असर रहा है.


मध्यवर्गीय  समाज में कैंसर की तरह फैल रहे भ्रष्टाचार को लेखक-निर्देशक ने ऊपर से छुआ है, कुछ दृश्यों में वे अवश्य सतह से नीचे उतरते हैं, लेकिन उनका उद्देश्य किसी गहरे विमर्श और कारण की खोज नहीं है. वे भ्रष्टाचार के चंगुल में फंसे भारत (चरित्र और देश) के एक पहलू को दिखाते हैं.


फिल्म इंटरवल के पहले सहज तरीके से हंसाती हुई एक मोड़ पर पहुंचती है. वहां से आगे बढ़ने के बजाए टेबल फैन के डैनों में फंस जाती है. आतंकवादी किरदारों के रूप में रखे गए दो अपराधियों का ट्रैक कमजोर और बचकाना है. बाबू जी के रूप में आए सतीश कौशिक की बेचारगी भी फिल्म में बहुत कुछ जोड़ नहीं पाती. फिल्म पूरी तरह से एक आयामी किरदार भारत पर निर्भर करती है. अक्षय खन्ना ने इस साधारण किरदार को सहज और विश्वसनीय तरीके से निभाया है. मुग्धा गोडसे और श्रिया  शरण के किरदारों पर निर्देशक का ध्यान नहीं है बल्कि वे चलताऊ तरीके से रखे गए हैं.


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कैलाश खेर और वीना मलिक दोनों ही फिल्म में आयटम की तरह आते हैं. दोनों की संगति फिल्म से नहीं बैठ पाती. कैलाश खेर परफॉर्मर नहीं हैं. उन्हें दिखने के प्रलोभन से बचना चाहिए. वीना मलिक में आयटम  सॉन्ग की वह बारीक समझ नहीं है, जो अश्लीलता का एहसास देती हुई भी अश्लील होने से बची रहती है.


यह फिल्म सिनेमाघर में आने से पहले अन्ना हजारे को भी दिखाई गई थी जिन्होंने फिल्म की तारीफ भी की थी लेकिन फिल्मकारों को समझना चाहिए कि आज सिनेमाघर में वहीं फिल्में चलती हैं जिनमें या तो फुल ऑन मसाला हो या फिर जिनका विषय इतना गंभीर हो कि वह पर्दे पर टिक सकें और इस फिल्म में दोनों ही नहीं हैं. साफ है फिल्म पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि फिल्म बनाने का कोटा पूरा करने के लिए बनाई गई  है.


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