केदार शिंदे ने मध्यवर्गीय मानसिकता की एक कहानी चुनी है और उसे हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करने की कोशिश की है। उन्हें तब्बू जैसी सक्षम अभिनेत्री का सहारा मिला है। साथ में शरमन जोशी और वत्सल सेठ जैसे आकर्षक कलाकार हैं। इन सभी के बावजूद तो बात पक्की हास्य और विडंबना का अपेक्षित प्रभाव नहीं पैदा करती। ऋषिकेश मुखजी, बासु चटर्जी और गुलजार की तरह हल्की-फुल्की और रोचक फिल्म बनाने का आइडिया सुंदर हो सकता है, लेकिन उसे पर्दे पर उतारने में भारी मशक्कत करनी पड़ती है। केदार शिंदे की फिल्म की शुरूआत अच्छी है, किंतु इंटरवल के बाद फिल्म उलझ जाती है। राजेश्वरी की इच्छा है कि उसकी छोटी बहन निशा की शादी किसी योग्य लड़के से हो जाए। उसे पहले राहुल सक्सेना पसंद आता है, लेकिन युवराज सक्सेना के आते ही वह राहुल के प्रति इरादा बदल लेती है। राहुल और युवराज के बीच फंसी निशा दीदी के हाथों में कठपुतली की तरह है, जिसकी एक डोर राहुल के पास है। युवराज से निशा की शादी नहीं होने देने की राहुल की तरकीब सीधे तरीके से चित्रित नहीं हो पाई है। इसके अलावा फिल्म की सुस्त गति से थिएटर में जम्हाइयां आ सकती हैं। अभी दर्शकों को तेज फिल्में देखने की आदत जो हो गई है। तब्बू का अभिनय फिल्म के लिए उचित है। किंतु उनकी प्रतिभा का यह उपयोग फिल्म इंडस्ट्री और तब्बू के प्रशंसकों के लिए अनुचित है। शरमन जोशी अपनी चुहलबाजी से हंसाते हैं। बाद में उनके किरदार को ही उलझा दिया गया है। इसका असर उनके परफार्मेस पर पड़ा है। वत्सल सेठ दिखने में सुंदर और आकर्षक है। अच्छा होता किउनके अभिनय के बारे में यही बात कही जा सकती। युविका चौधरी के पास कुछ कर दिखाने के सीमित अवसर थे।
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments