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अमित राय ने तथ्य और कल्पना से प्रभावी कहानी बुनी है और सामान्य मोटर मैकेनिक हशमतल्लाह को नायक बना दिया है। हिंदी फिल्मों में कट्टर मुसलमान किरदारों को अनेक फिल्में मिली हैं, लेकिन उदार और सहिष्णु मुसलमानों को अधिक जगह नहीं मिल पाई है। हशमतउल्लाह विभाजन के बाद अपने फैसले से भारत में जी रहा मुसलमान है और मानता है कि हम जहां रहते हैं, वहां के बारे में ही सोचना चाहिए। उसके सामने जब मजहबी फतवे और सामाजिक जिम्मेदारी की दुविधा आती है तो वह जिम्मेदारी को चुनता है। वह अपने समुदाय की खिलाफत नहीं करता, बल्कि अपनी जिद और नेक सोच से उन्हें राजी कर अपने साथ ले आता है। वह गांधी के प्रति समर्पित है। वह चाहता है कि गांधी के मूल्यों के लिए अपना छोटा सा योगदान करे।
परेश रावल को हम निगेटिव और कामिक भूमिकाओं में देखते रहे हैं। उन फिल्मों में भी वे अच्छे लगते हैं, लेकिन उनकी अभिनय क्षमता रोड टू संगम जैसी फिल्मों में उभर कर आती है। उनके अलावा ओमपुरी, पवन मल्होत्रा और जावेद शेख ने अपने किरदारों को संजीदगी के साथ निभाया है। इस फिल्म में पवन मल्होत्रा अपनी भाव-भंगिमाओं से चकित करते हैं।
अमित राय ने फिल्म के विषय की तरह इसकी मेकिंग और टेकिंग में भी सादगी रखी है। उन्होंने तकनीक से दर्शकों को चौंकाने का प्रयास नहीं किया है। रोड टू संगम में उसकी जरूरत भी नहीं थी। महात्मा गांधी के पुण्य दिवस पर यह फिल्म फिर से उनके सिद्धांतों की याद दिलाती है।
-अजय ब्रह्मात्मज
Source: Jagran Yahoo Cinemaza
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