वह आप के घर आये आप को गांव-जंवार के संबंधों का हवाला दिया, आपने उन्हें अपना बनाया, उन पर विश्वास किया और छोड दी उनके हांथों में अपनी तकदीर, फिर वहीं आपे हाकिम बन कर आए और आप से दूरी रखने लगे। क्यों, ऐसा ही हो रहा है जनता और नेता के बीच। हम जागरूक हैं पर सचेत नहीं वर्षों से यही परंपरा चली आ रही है कि चुनाव के पहले नेता जी हमारे गांव के होते हैं। हमारे घर आते हैं हमारे साथ बैठते हैं, गांव के हरिया को गले से लगाते हैं और कहते हैं चाचा अब आप ही सब कुछ हैं। चुनाव में जीत कर नेता जी तो टाटा सफारी पर आ जाते हैं लेकिन गांव का हरिया अपनी झोपडी में दिए की रोशनी में अपना दिन बिताता है। चुनाव निपट जाते ही गांव के नेता जी गांववालों से ही दूरी बना लेते हैं। सरकार की योजनाओं में भी उनकी सूची में चाटुकार पहले और जरूरत मंद बाद में होते हैं। सोचिए क्या इसी दिन के लिए हमने उन्हें अपना अगुवा चुनकर देश की सबसे बडी पंचायत में भेजा था। सच तो ये है कि यह सोचने के लिए हमारे पास समय ही नहीं है। गांव की भोली भाली जनता विश्वास में मारी जाती है और हमारे पास वक्त नहीं हम अपने मत के प्रयोग से पहले इस विषय पर सोच सकें कि क्या अच्छा है क्या बुरा। नेता जी दबंग है, हमसे हंस के बोल दिया, हमारे कंधे पर हाथ रख दिया हम इसी में खुश हैं कि भईया ने हमे देखा, मोहल्ले में कालर खडी हुई और हम गदगद। बस इसी झूठे दिखावे में हम अपने उस हथियार का दुरुपयोग करते हैं, जो हमे वोट के रुप में मिला है। धूस, भ्रष्टाचार, अपराध से हमे बचाने का वादा करने वाले नेता जब सत्ता में आते हैं तो वहीं अधिकारियों के साथ एकांत वार्ता करके लौट जाते हैं, यदि जनहित की शपथ खा कर आप नेता बने हैं तो जनता के सामने बात करने में आप क्यों लजाते हैं। आप जनता के लिए सत्ता में आएं हैं तो सरकारी विभागों से आप का इतना लगाव, अच्छे संकेत नहीं देते हैं नेता जी । आज हमारे पास गरीबी है, महंगाई है, भ्रष्टाचार है तो बस रानीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते। देश पर राज करने के लिए अंग्रेजों से इंसानों में फूट डाली थी यह बात तो समझ में आती हैं लेकिन आप अपने देश के होकर आरक्षण और जाति के बाद के नाम पर इंसानों के बीच खाई क्यों बना रहे हैं। कदाचित यदि आज महात्मा गांधी, चन्द्र शेखर आजाद, भगत सिंह जिंदा होते है तो देश की यह हालत देख उन्हें भी तरस आता क्योंकि जिस स्वराज की स्थापना वह करना चाहते थे उनके उन उद्देश्यों पर आज की दिशा विहीन राजनीतिक सोच का अतिक्रमण हो चुका है। मैं इन्हीं बातों के साथ अपने विचारों को विराम देना चाहूंगा की, अपने जिस मत के प्रयोग से हम दिशा विहीन राजनीतिक के बढते कदम रोक सकते हैं, उसका प्रयोग हम पूरी ईमानदारी के साथ करेंगे। शायद शायर ने यह पंक्तियां इसी लिए बनाईं होगी- गंगा की कसम, जमुना की कसम, सतलज का मुहाना बदलेगा कुछ तुम बदलो, कुछ हम बदलें, देखो ये जमाना बदलेगा
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