जब चुनाव आता है तो मरहूम कवि रफीक शादानी की एक पंक्ति बहुत याद आती है। जब-जब चुनाव आवत है भात मांगों पुलाव आवत है। माफ करिएगा मैं यहां उनकी इस पंक्तिं को कुछ बदलना चाहूंगा और इसके लिए मैं उनके लाखों प्रशांसकों से क्षमा भी चाहता हूं। मेरा मानना है कि जब-जब चुनाव आवत है पानी मांगों शराब आवत है। अर्थात मैं यहां कहना चाहता हूं कि आज जनमत शराब में डूब चुका है। मैं ऐसा न कहता लेकिन पंचायत चुनाव की बयार चल पडी है। और संभावित प्रत्याशियों को जब यह कहता हुए सुनता हूं कि दो सौ बोतल कच्ची और कुछ अंग्रेजी शराब का बंदोबस्त करना है गांव में बांटने के लिए तो बरबस लोकतंत्र का लडखडाता शरीर देखने को मिलता है। जो शराब की घूंट में घुटने को तैयार रहता है। ऐसा वे पूरे गांव के लिए नहीं करते हैं बल्कि गांव में जनमत के उन ठेकेदारों के लिए करते हैं, जिनके हाथों आज गांव की भोली भाली जनता अपना मताधिकार गिरवी रख चुकी है। उन्हें शराब की चुस्की मिली और फिर लगते हैं गांव वालों को लोकतंत्र का पाठ पढाने। यह पाठ कभी जातिगत होता है तो कभी समुदाय हित में पर जनहित में नहीं। आप ही सोचिए की शराब की चुस्की में कोई आप के भाग्य का फैसला किस तरह कर सकता है। आज जरूरत है लोकतंत्र को जनमत के ऐसे ठेकेदारों के चंगुल से आजाद कराने की। सोचिए आप का मत एक बोतल शराब में किसी के हाथों बिकने जा रहा है। उसे बचाने के लिए हम सब को आगे आना होगा। सिर्फ पंचायत चुनाव ही नहीं बल्कि हर चुनाव इस दोष से मुक्त नहीं है। अंतर बस इतना है कि कोई गांव की पगडंडी पर इसका सौदा करता है तो कोई पांच सितारा होटल के एसी कमरे में।
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