Menu
blogid : 9915 postid : 5

संस्कृति और सभ्यताओं को बचाने की मुहिम

नजरिया
नजरिया
  • 4 Posts
  • 30 Comments

विश्व पटल पर गूंजेगा शांति और प्रेम का नारा
मानवता का धर्म सर्वोपरि वसुधैव कुटुंबकम् भाव हमारा।
विश्व में अनेक सभ्यता और संस्कृति अपनी विशेषताओं के साथ जन्मी लेकिन दुर्भाग्य से सभी को संरक्षित करना उचित नहीं समझा गया। जिस कारण प्राचीन और सम्पन्न संस्कृति पूरी तरह फल फूलने से वंचित रह गई। ऐसी ही गुमनाम गलियों में भ्रमण कर रही विभिन्न संस्कृतियों को एक मंच पर देखना अपने आप में रोमांचित करने वाला होता है। ऐसा ही अभूतपूर्व नजारा देव संस्कृति विश्वविद्यालय में आयोजित चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस एण्ड गैदरिंग ऑफ एल्डर्स के मौके पर था। यहां 24 संस्कृतियों की प्रार्थना प्रतिभागियों ने अपने पारंपरिक अंदाज में दी। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है जब विभिन्न संस्कृतियों की प्रार्थना एक मंच पर की गई।
यह कुछ हटके था क्योंकि 24 देशों की भाषा भले ही न समझ में आए लेकिन प्रेम की परिभाषा के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं पडती। ‘‘अगर हम प्रकृति और स्वयं को संतुलित करले तो ब्रह्मांड की सारी  गतिविधियां  संतुलन में आ जाएगी। लेकिन हम इसकी जगह विनाशक क्रियाओं में लगा मनुष्य स्वयं को ही नष्ट करने पर तुला है।‘‘ स्वामी दयानंद सरस्वती के उद्गारों ने सबकुछ बयां कर दिया। सच भी है कि ईश्वर ने हमें सबकुछ दिया लेकिन हम ही उसे ढूढ़ नहीं पाते। जिस दिन हम उसे खोज निकाले विश्व की हर व्यवस्था में सामंजस्य आ जाएगा। ‘‘हमें एकजुट करने में एक ही भाषा बिना बोले संदेश दे जाती है वह है प्रेम और सहयोग की भाषा।‘‘ देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डॉ प्रणव पण्डया का कथन समीचीन है। जिन सभ्यताओं को हम आज देख रहे हैं वे अभी शैशवावस्था में कह सकते हैं। लेकिन ये सभ्यताएं ईसा से पूर्व अपने में विशेष गुणों के लिये विख्यात रही हैं।
दरअसल संस्कृति शब्द के मायने वर्तमान परिदृश्य में पूरी तरीके से बदल गये हैं। संस्कृति किसी धर्म, जाति, सम्प्रदाय, देशकाल परिस्थिति में नहीं बंधी है। संस्कृति मनुष्य की विभिन्न साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति है। हिंदसंस्कृति जीवन से संबधित है। सहज जीवन शैली का नाम ही संस्कृति है। संस्कृति को हम एक विचारधारा का रूप भी दे सकते हैं। लेकिन इस कठमुल्ला समाज के चरमपंथी और राष्ट्रवादी आज भी इसे इसे विस्तृत रूप देने के पक्ष में नहीं हैं। बात चाहे सभ्यता की हो या संस्कृुति की विस्तृत फलक मिलने पर यह अपनी सुगंध से पूरी वसुधा को महकाएगी।
वस्तुतः किसी भी संस्कृति को मुख्यधारा में लाने के लिए उसमें जीना सीखना पडे़गा। अन्यथा की स्थिति में सारी कोशिशें नाकाफी हैं। ये प्रयास उस कागजी गुलाब की तरह होंगे जिसमें कोई महक नहीं। हमें संस्कृति की महक के लिए भाषायी कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है श्रद्धेय के शब्दों में ‘‘हम एक दूसरे की क्षेत्रीय भाषाओं को भले न समझे लेकिन हम प्यार और सहकार की भावनाओं को समझ लेते हैं।‘‘ क्योंकि शब्दों के लिए मस्तिष्क काम करता है, लेकिन भावनाएं सीधे हृदय को छूती हैं।
यह संगोष्ठी विशेष रूप से संतुलन के उद्देश्य से आयोजित की गई। ऐसा विश्व बने जहां सभी संस्कृतियों में सामंजस्य हो। यहा संस्कृतियों को एकत्रित करने का उद्देश्य आपस में विचारों का आदान-प्रदान और विलुप्त हो रही संस्कृतियों को बढ़ावा देना है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply