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अरुणेश, हिसार
इसे सिस्टम की खामी कहें या कुछ और, न्याय मिलने के बाद भी उसे पाने के लिए एक व्यक्ति सालों से इंतजार है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस निर्णय को लागू करने के लिए 60 दिन का समय निर्धारित किया वह 7300 दिनों में भी नहीं हो पाया। प्रार्थी कार्यालयों के चक्कर काटने के बाद अब वित्त आयुक्त कार्यालय के चक्कर काट रहा है। न्याय की यह लड़ाई हिसार जिले में 1958 के जून महीने में शुरू हुई थी, जब हिसार सिविल कोर्ट ने काशीराम, हरचंद्र और भागू द्वारा बंता आदि को 18 जून 1956 को बेची गई करीब 280 एकड़ की जमीन पर हकसुबा के दावे से संबंधित फैसला सुनाते हुए गोदू, साहेब और मनीराम से कहा कि यदि वह अपनी पुश्तैनी जमीन खरीदना चाहते हैं तो उन्हें एक माह के अंदर 1 लाख 35 हजार रुपये जमा करा दें, क्योंकि जमीन के मालिक का बेटा होने के नाते पहला अधिकार उसे दिया जाता है। नहीं तो दूसरी पार्टी मूला, रणजीत, श्योलाल, भगडू और चंदू उतनी राशि जमा कराकर रजिस्ट्री करा सकते हैं। गोदू, साहेब और मनीराम ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी, लेकिन राशि जमा नहीं कराई।
इस बीच दूसरी पार्टी ने सिविल कोर्ट हिसार में राशि जमा करा दी और जमीन उनके नाम हो गई। हाईकोर्ट ने 1967 में कहा कि जमीन के लिए गोदू व अन्य को 5 हजार रुपये तीन माह के अंदर जमा कराने को कहा। इस दौरान सिविल कोर्ट ने गोदू के दावे को खारिज कर दिया। फिर उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। 1972 में हाईकोर्ट ने फैसला दिया कि प्रथम पार्टी द्वारा निर्धारित समय में राशि नहीं जमा करने के बाद दूसरी पार्टी ने राशि जमा करा दी। ऐसे में पूर्व में हाईकोर्ट द्वारा राशि जमा करने का मायने नहीं रह जाते हैं। गोदू ने 1979 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। शीर्ष अदालत ने 9 फरवरी 1990 को अपने आदेश में कहा कि गोदू एवं अन्य को 280 में से सरप्लस जमीन का मालिकाना हक दे दिया जाए। शेष जमीन मूला, रणजीत, श्योलाल, भगडू और चंदु को दिलाने के आदेश दिए। अदालत ने आदेश को 60 दिन में लागू करने की समय सीमा बांध दी। डीसी द्वारा आदेश लागू नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दायर की गई। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने 7 दिसंबर 1992 को तीन माह के अंदर आदेश लागू करने का निर्देश दिया। दूसरे पक्ष की अपील पर न्याय पाने की अंतहीन प्रक्रिया अभी जारी है।
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