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दयानंद शर्मा, चंडीगढ़
अब इसे हमारी न्याय प्रणाली की खामी ही कहेंगे कि पांच लोगों ने एक ऐसे अपराध की सजा काटी जो उन्होंने किया ही नहीं। उन्हें हत्या के एक केस में उम्रकैद की सजा हो गई। आठ साल बाद खुलासा हुआ कि मृतक तो जिंदा है। इतने साल बाद जब न्याय मिला तो उनका सब कुछ तबाह हो चुका था। एक आरोपी की पत्नी ने दूसरा विवाह कर लिया तो एक के मां-बाप व दो बेटियों की इलाज के अभाव में मौत हो गई। एक की मां व पत्नी गम में दुनिया से चल बसे तो एक अन्य के बच्चों ने रोजी-रोटी की जुगाड़ में पढ़ाई छोड़ दी। बरनाला के नछतर सिंह, शेरा सिंह, अमरजीत सिंह, निक्का सिंह व सुरजीत सिंह पर 1996 में जगसीर सिंह की हत्या का आरोप लगा। निचली अदालत ने 2001 में सभी को कसूरवार ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई। आठ साल की सजा काटने के बाद उन्हें पता चला कि जगसीर तो जीवित है। यह पंजाब पुलिस का कारनामा था कि उसने सभी से हत्या का गुनाह कबूल करवाकर पुख्ता सबूत भी कोर्ट में पेश कर दिए। जगसीर के परिवार को एक शव भी सौंपा जिसकी पहचान संभव नहीं थी। जगसीर के जिंदा होने की बात सामने आने के बाद पांचों ने 2009 में हाईकोर्ट में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने पुलिस को जगसीर का पता लगाकर पेश करने का आदेश दिया। साथ ही हाईकोर्ट ने पांचों को जमानत पर रिहा कर दिया। शेरा जब घर पहुंचा तो उसकी मां व पत्नी गुजर चुके थे। सुरजीत की दो बेटियां व मां-बाप इलाज के अभाव में दम तोड़ चुके थे। निक्का की पत्नी ने दूसरा विवाह कर लिया था। अमरजीत के बच्चों की रोटी के चक्कर में पढ़ाई छूट गई। पुलिस ने जगसीर (29) को हाईकोर्ट में पेश किया। वहां उसने कहा कि उसको मामले की कोई जानकारी नहीं है और वह इस समय एक केस में जेल में है। हाईकोर्ट ने पुलिस पर कड़ी टिप्पणी की और पंजाब सरकार को पांचों पीडि़तों को 20-20 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया।
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