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इंद्रपाल गोयत
मुकदमे निपटारे में देरी, न्यायपालिका से सबसे बड़ी शिकायत है। सरकार व न्यायपालिका की कोशिशों के बाद भी इस समस्या का कोई हल नहीं निकल पाया है। इसमें केवल आंशिक सफलता ही मिल रही है। जजों की कम संख्या न्याय में देरी का एक मुख्य कारण है। देश के सभी हाईकोर्टो में न्यायाधीशों के कुल 895 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 274 खाली हैं। ये रिक्त पद कहीं न कहीं मामलों में देरी के लिए जिम्मेदार हैं, जिससे लोगों में अदालतों के प्रति विश्वास कम हुआ है। इस विश्वास को बहाल करने के लिए ही मुहिम चलाने की जरूरत है। देश के कानूनों में बदलाव की आवश्यकता भी काफी समय से महसूस की जा रही है। देश में कुछ कानून तो अंग्रेजों के जमाने के हैं। तब से अब तक समाज में काफी बदलाव आ चुके हैं। अपराध और अपराध करने वाले दोनों बदल गए हैं। यही कारण है कि कई बार कानून में खामी से अपराधी बच निकलते हैं।
वर्तमान में न्याय प्रणाली को यूजर फ्रेंडली बनाना चाहिए ताकि आम आदमी न्याय पाने के लिए किसी पर निर्भर न रहे। वर्तमान में केस फाइलिंग में जरा सी गलती होने पर केस खारिज होने का भय बना रहता है। कई बार केस में संशोधन करवाना हो तो उसके लिए लंबी प्रकिया से गुजरना पड़ता है। इस प्रकिया में संशोधन समय की मांग है। सरकार व न्यायपालिका ने गरीबों को कानूनी सहायता उपलब्ध करवाने के लिए कदम तो उठाए हैं, लेकिन वे नाकाफी हैं। सही जानकारी के अभाव में अधिकतर जरूरतमंद इसका फायदा नहीं उठा पाते। इसके लिए न्यायपालिका व कार्यपालिका दोनों को मिलकर ऐसा सिस्टम विकसित करना चाहिए जिससे जरूरतमंदों को समय पर उचित कानूनी सहायता मिलने में कोई परेशानी न हो। न्यायपालिका को भी मामलों की सुनवाई टालने से परहेज करना चाहिए। जिस मामले में ज्यादा जरूरत हो, केवल उसी में अगली तारीख देनी चाहिए, तभी विचाराधीन केसों को संख्या कम हो पाएगी। कुछ मामलों में देखा जाता है कि गरीब आदमी 100-200 किमी से अपने केस की सुनवाई के लिए कोर्ट आता है और वहां आकर पता चलता है कि मामले में आगे की तारीख डाल दी गई है। ऐसे में उस व्यक्ति में न्यायपालिका के प्रति कितना विश्र्वास बाकी बचता है, यह सोचने का विषय है। (लेखक पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में वकील हैं।)
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