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माला दीक्षित, नई दिल्ली
देश में न्याय का अर्थशास्त्र कम कठिन नहीं है। हमारे यहां गरीब के लिए इंसाफ की पैरवी भी सजा से कम नहीं है जबकि अमीरों के लिए मुकदमे रोजमर्रा की बात है। मुफ्त कानूनी सहायता के तहत गरीबों को मुकदमा लड़ने के लिए वकील तो सरकार दे देती है लेकिन जमानत की रकम और जमानती का इंतजाम हर अभियुक्त को खुद करना पड़ता है जो गरीबों के लिए आसान बात नहीं है।
देश में बहुत से कैदी सिर्फ इसलिए जेल काट रहे हैं क्योंकि उनके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं है। न्याय तब और महंगा हो जाता है जब देर का अंधेर इसमें मिल जाता है। इसके बाद तो फिर पैरवी गरीब को निचोड़ डालती है। यह बात कोई और नहीं बल्कि देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी मानती हैं। गाजियाबाद के ताजे नजारत घोटाले से जुड़ी अदालती प्रक्रिया में गरीबों की मजबूरी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची। इस मामले में ज्यादातर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आरोपी हैं। इन्हें दो साल की जेल के बाद हाईकोर्ट से इस शर्त पर जमानत मिली कि जितनी रकम के घपले का उन पर आरोप है उसे जमा कराने पर ही उन्हें छोड़ा जाएगा। इस शर्त ने जमानत को नामुमकिन बना दिया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में संशोधन करते हुए सभी को एक लाख रुपये जमा कराने पर जमानत देने का आदेश दिया। ड्राइवर, सफाई कर्मचारी जैसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए एक लाख की रकम भी आसान नहीं थी।
महंगे न्याय का अहसास विधि आयोग को भी है। मोटर वाहन दुर्घटना मामले पर अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति के परिजन कर्ज लेकर मुकदमा लड़ते हैं और जब मुआवजा मिलता है तो उनके हिस्से कुछ नहीं आता क्योंकि मुआवजे की रकम कर्ज चुकाने में चली जाती है। अगर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दाखिल करने का न्यूनतम खर्च देखा जाए तो वह करीब 10 हजार रुपये बैठता है। मुश्किल से दो जून की रोटी कमाने वाले कर्मचारी के लिए यह आसान नहीं है। सैकड़ों कर्मचारी तो सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा लड़ने को मजबूर होते हैं। सरकार के कंधों पर महंगे न्याय का बोझ कम नहीं है। सरकार की ताजा रिपोर्ट देखें तो केंद्र सरकार ने पिछले साल सिर्फ दिल्ली हाईकोर्ट में मुकदमों की पैरवी के लिए वकीलों को करीब 2.46 करोड़ रुपये फीस दी। इसमें दस्तावेजों पर आने वाला खर्च, कोर्ट फीस आदि शामिल नहीं है।
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