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अफसोस , बाग़ में है परिंदा नहीं कोई………….. (ग़ज़ल)

दर्दे - जहान
दर्दे - जहान
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मेरे सिवाय और वाशिंदा नहीं कोई ,
लगता है इस ज़हान में जिंदा नहीं कोई .

अब गूंजते हैं शहर में कातिल के ठहाके ,
जो दे सज़ाए – मौत वो फंदा नहीं कोई .

कहते हैं चोर क्या करें – बेरोज़गार हम ,
इसके सिवाय मुल्क में धंधा नहीं कोई .

जिसके शरीर पर न लगा दाग अब तलक ,
इतना हसीं आकाश में चंदा नहीं कोई .

हैं पेड़ भी, हैं फूल भी पत्ते भी हैं हरे ,
अफसोस बाग़ में है परिंदा नहीं कोई .

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