मेरे मन से
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कोई भला मानष कहता,
तो कोई कहता,आदमी नहीं अच्छा,
प्रेम से कोई,मुझको बुलाए,
देकर दर्द कोई मुझको रूलाए ,
नफ़रत की निगाहों से,कोई
मुझे देखे,और किसी को मैं,
आदमी होकर,आदमी को न,
जान पाया,
न जाने अब तक,कौन सा रिश्ता,
मैंने निभाया ।
भूल पर भूल करता गया,
आदमी होकर,आदमी से,
दूर चलता गया ।
क्या यही मेरी पहिचान है,
इंसान होकर,इंसान से,अनजान हूँ,
मैं,मेरा,मुझसे अब तक यही,बोलता चला,
झूठ की ताक़त से,खुद को तोलता गया ,
अब जब मैं मौन हूँ,
इसलिए खुद से पूछता हूँ,मैं कौन हूँ ।
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