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ममता का डेमोक्रेजीवाद

dotuk
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देश में वैसे तो डेमोक्रेसी का शासन है, जहां शासक जनता जर्नादन के प्रति जबावदेह है। लेकिन कुछ नेता सत्ता में आने के बाद डेमोक्रेसी को भूल जाते हैं और वे डेमोक्रेजी के शिकार हो जाते हैं। ढाई दशकों के लाल शासन को खत्म करने का इतिहास रचने वाली ममता बनर्जी भी इसी डेमोक्रेजीवाद की शिकार हो गई हैं। कोई उनकी आलोचना करे या कोई उनसे कुछ पूछे तो उन्हें काफी नागवार गुजरता है। लेकिन क्यों? ये शायद ममता भी नहीं जानतीं।
ममता भले ही बंगाल के हालात बदलने या बंगालियों के दुख दर्द को कम न कर पाई हों लेकिन संविधान और लोकतंत्र की भावना को तार-तार करने का वह कोई मौका नहीं चूकतीं। रेल किराया मामला में तो उनकी राजनीतिक मजबूरी समझी जा सकती है लेकिन व्यंगचित्र बनाने और टीवी शो में सवाल पूछने वालों पर कानून का डंडा चलावाना क्या है? क्या ममता को लोकतंत्र में विश्चास नहीं अथवा वे खुद को तानाशाह समझती हैं? व्यंगचित्र बनाने के मामले में एक प्रोफेसर को जेल भिजवा चुकी ममता अभिव्यक्ति की आजादी के संविधान प्रदत्त अधिकार का हनन कर आखिर क्या साबित करना चाहती हैं? सालभर से राज्य की कमान संभाल रही ममता को हर सवाल पूछने वाला अथवा उनके कामकाज की शैली पर सवाल उठाने वाला वामपंथी अथवा माओवादी ही क्यों नजर आता है? ममता को यह समझना चाहिए कि वे जिस राज्य की बागडोर संभाल रहीं है वह न सिर्फ कभी देश की आर्थिक धुरी थी बल्कि शिक्षण का एक बड़ा केंद्र भी था।
कभी वाममोर्चे की लोकतंत्र विरोधी रवैये का विरोध करने वाली ममता को आखिर हो क्या गया है। दो दिन पहले ममता एक अंग्रेजी न्यूज चैनल के टीवी टॉक शो में गई थी। टॉक शो इंटरएक्टिव टाइप का था, मतलब उन्हें एंकर के साथ ही दर्शक के तौर पर मौजूद लोगों के सवालों का जबाव भी देना था। शो में दर्शक के तौर पर बंगाल के दो प्रमुख विश्चविद्यालयों के विद्यार्थी मौजूद थे। इनमें से कुछ विद्यार्थियों ने बंगाल में महिलाओं पर बढ़ते हमले और लोकतांत्रिक अधिकारियों को पुलिस के जरिए कुचलने के मुद्दे पर ममता से सवाल पूछ लिया और यही ममता को नागवार गुजरा। ममता ने सवाल पूछने वाली छात्रा को माओवादी कहते हुए जंगल में जाने की सलाह दे डाली और चि्वा-चि्वाकर यह कहती हुईं शो छोड़कर चली गई कि ये सभी माओवादी और वामपंथी हैं और वे इनके सवालों का जबाव नहीं देंगी?
ममता के इस रूख से सवाल उठते हैं? क्या ममता खुद को माओवाद अथवा वामपंथ से ता्वुक रखने वाले बंगालियों की मुख्यमंत्री नहीं समझतीं? अगर ऐसा है तो यह संविधान का घोर अपमान ही है। बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने जिस संविधान की शपथ ली है उसके मुताबिक वे बंगाल में रहने वाले हर किसी की मुख्यमंत्री हैं और हर किसी को उनसे सवाल पूछे का हक संविधान और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था देता है। क्या मुख्यमंत्री ममता सिर्फ यह कह कर बच सकती हैं कि अमुक माओवाद अथवा वामपंथ में विश्चास करता है इसलिए न तो उनकी सरकार उसके लिए कुछ करेगी और न ही वह उनसे कोई सवाल पूछ सकता है। कम से कम बंगाल जैसे राज्य और ममता जैसे अनुभवी नेता से तो ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है। ममता को पद की गरिमा को ध्यान में रखना चाहिए था।
अगर एक पल को यह मान भी लें कि दर्शक के तौर पर स्टूडियो में मौजूद कुछ विद्यार्थी माओवाद अथवा वामपंथ से प्रभावित भी हों तो बतौर मुख्यमंत्री ममता को उनके सवालों का जबाव देते हुए सरकार का पक्ष रखना चाहिए था। लेकिन लगता है ममता को सवाला का जबाव देने से अधिक दुनिया भर में समाचारों की सुर्खियां बनने की अधिक चिंता थी।
खैर, ममता के लिए ऐसा व्यवहार करना कोई नहीं बात नहीं है। व्यंग चित्र बनाने वाले प्रोफेसर के मामले में भी उनका व्यवहार ऐसा ही था। कार्टून बनाने की शिकायत बाद में हुई लेकिन उक्त प्रोफेसर पहले गिरफ्तार हुआ और उस पर हमला करने वाले तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता तब गिरफ्तार हुए जब मीडिया में अभिव्यक्ति की आजादी के दमन पर हायतौबा मचा। राष्ट्रीय मीडिया में जब बंगाल में तार-तार होते कानून व्यवस्था की खबरें बढ़ने लगी तो ममता ने जनता से सिर्फ बंगाली समाचार चैनल देखने के साथ ही सरकारी अखबार निकालने व चैनल शुरु करने की बात कही थी।
ममता हों या कोई और नेता, अगर उन्हें बहुमत के बजाय स्पष्ट बहुमत मिल जाता है तो किसी न किसी रूप में मीडिया पर सेंसरशिप लागू करने की कोशिश करते ही हैं। बिहार में मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप की जांच तो इन दिनों प्रेस परिषद की कर रही है। दूसरे राज्यों में भी स्थिति कुछ ऐसी है। कहीं कम कहीं ज्यादा।
लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। लेकिन गाहे-बगाहे लोकतंत्र की दुहाई देने वाले नेता उसकी आत्मा लोकलाज को ही भूल चुके हैं। नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि सवालों से मुंह चुराकर वे ज्यादा दिनों तक जनता को भ्रमित नहीं कर पाएंगे और न ही जनता को सही जानकारी हासिल करने से रोक पाएंगे। जनता सब जानती। पांच साल बाद जब मौका आता है, जनता सबक भी सिखाती है, लेकिन अक्सर नेता जनादेश को समझ नहीं पाते हैं। ममता और दूसरे नेता जितनी जल्दी इसे समझ लें उतना ही उनके लिए और लोकतंत्र के भी अच्छा होगा।

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