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मंगलौर के रिसार्ट में महिलाओं से दुर्व्यवहार के बाद एक फिर से टी वी चैनलों की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब गुवाहाटी में एक लड़की से दुर्व्यवहार की कवरेज को लेकर टी वी मीडिया पर उंगली उठी थी। देश को शर्मसार करने वाली गुवाहाटी की घटना की कवरेज में क्षेत्रीय टी वी चैनल ने जिस तरह नैतिक मानदंडों की धज्जियां उड़ाई वह तो अपने आप में सवाल है ही। साथ में इस बात के भी आरोप लगे कि पूरा घटनाक्रम ही उक्त चैनल के एक पत्रकार द्वारा ही प्रायोजित था। मंगलौर में शनिवार को हुई घटना भले ही पहली नजर में नैताकिवादियों की फौज की करतूत लगे लेकिन इसमें भी कहीं न कहीं टी वी मीडिया की भूमिका सवालों के घेरे में हैं।
रक्षात्मक मुद्रा अपनाने के बावजूद कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री आर अशोक जिनके पास गृह विभाग का भी जिम्मा है, ने टी वी मीडिया की भूमिका और मंशा पर भी सवाल उठाए हैं। अशोक की बात सही भी है और उसे सिरे खारिज भी नहीं किया जा सकता। अशोक ने अप्रत्यक्ष रूप से सवाल उठाया है कि आखिर जब नैतिकतावादियों की कथित फौज महिलाओं से दुर्व्यवहार कर रही थी, उन्हें जलील कर रही थी तो मीडिया लाइव कवरेज क्यों रहा था। ये लोग मीडिया को अपने साथ ले गए आखिर क्यों? मीडिया वालों ने पुलिस को सूचना देने की जहमत क्यों नहीं उठाई?
अशोक की जगह कोई और भी मंत्री होता तो वह भी सहज स्वभाव ये सवाल जरुर पूछता। खुद को जनता की आवाज बताने वाले टी वी चैनल के पत्रकारों और संपादकों की खुद की नैतिकता टीआरपी और सबसे पहले बे्रकिंग और एक्सक्लूसिव के चक्कर में कहां चली जाती है कि वे कुछ लोगों को औरतों को सरेआम जलील करते लाइव दिखाते हैं। वे तर्क दे सकते हैं कि उनका उद्देश्य महिलाओं का अपमान करना नहीं था और वे ऐसा करने वालों का चेहरा बेनकाब करना चाहते थे लेकिन इस थोथी दलील से वे अपने उस कृत्य के लिए माफी नहीं मांग सकते कि सिर्फ सनसनी के लिए उन्होंने टी वी स्क्रीन पर कुछ महिलाओं को अपमानित होते दिखाया और ऐसा करने वालों का जाने-अनजाने में महिमामंडन भी कर दिया।
मंगलौर में जो कुछ भी हुआ वह पूरी तरह प्रायोजित था। कुछ लोगों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए सरेआम महिलाओं का अपमान, कानून को तार-तार किया और मीडिया सिर्फ लाइव कवरेज रुपी टीआरपी के प्रसाद के चक्कर में उनके हाथों का खिलौना बन गया। ये नैतिकतावादी उस वक्त कहां था जब उडुपी में एक तट पर सरकारी देखरेख में रेव पार्टी हुई थी?
कल को अगर ये बात भी सामने आए कि इन नैतिकतावादियों की अगुवार्इ कर रहे कुछ लोगों ने उक्त रिसार्ट वालों से किसी खुन्नस को लेकर षडयंत्र पूर्वक पूरा बवाल रचा हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अक्सर नैतिकता और संस्कृति की दुहाई देकर ऐसा कृत्य करने वालों की मंशा कुछ और ही होती है। ये नैतिकतावादी भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। ऐसे अधिकांश लोग या तो बेरोजगार होते हैं अथवा राजनीति की पहली सीढ़ी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे होते हैं और ऐसे कृत्य उनके कॅरियर के लिए संजीवनी साबित होती है।
खैर इस बात को एक पल के लिए सच भी मान लिया जाए कि वहां वेश्यावृति जैसी कोई अनैतिक गतिविधि चल रही थी अथवा युगल वहां आकर मौज मस्ती करते थे तो इससे कानून कहां टूट रहा था। इस देश का कानून बालिगों को अपने अंदाज से जिंदगी जीने की आजादी देता है बशर्ते कानून का उ्वंघन न हो। मंगलौर की घटना में कानून के उ्वंघन का मामला तो प्रथम दृष्टया नहीं ही लगता है बल्कि यह हफ्ता वूसली या निजी खुन्नस का मामला अधिक लगता है।
सवाल है कि आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा कि मीडिया वाले उपद्रवियों के संग ही कैमरे के साथ वहां पहुंच गए और उनके उत्पात मचाते ही शुरु हो गई लाइव करवेज। अगर कानून की बात करें तो मीडिया भी इस दायरे में आता है और अगर यह सच है कि मीडिया कर्मी भी उपद्रवियों के साथ ही मौके पर पहुंचे थे और उनकी मौजूदगी में ही उपद्रव हुआ, महिलाओं के इस चीरहरण के प्रयास का स्क्रीन पर प्रसारण हुआ तो वे भी कानून के उपद्रवियों के समान ही दोषी होंगे। हो सकता है कि पुलिस की जांच का दायर बढ़े तो एकाध मीडिया कर्मी गुवाहाटी मामले की तरह सलाखों के पीछे पहुंच जाएं। लेकिन अगर ऐसा हुआ तो फिर लोकतंत्र के चौथे स्तंभी आजादी के राग के साथ पूरी मीडिया सरकार और पुलिस के खिलाफ जुट जाएगी। फिर मामला ठंडा पड़ जाएगा और अगली बार फिर कहीं टीआरपी के चक्कर में और नैतिकता व संस्कृति की आड़ में नारी के अपमान का घिनौना खेल होगा। हो सकता है कि कुछ साथी मेरे इन विचारों से सहमत नहीं हों लेकिन यह मीडिया के लिए आत्मावलोकन का सवाल है कि वह सनसनी अथवा टीआरपी के चक्कर में क्यों किसी के हाथों की कठपुतली बने या किसी नारी का टी वी अपमान कराए।
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