Menu
blogid : 19990 postid : 1366522

ताश के पत्ते

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
  • 51 Posts
  • 299 Comments

मैंने प्रसिद्ध हिन्दी रहस्य-कथा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के लगभग सभी उपन्यास पढ़े हैं और उनमें से अधिकतर को एक से अधिक बार पढ़ा है । लेकिन उनके द्वारा लिखी गई कई लघु कथाओं तक मेरी पहुँच नहीं हो पाई है । ऐसी एक लघु कथा को हाल ही में मैंने ई-पुस्तक के रूप में पढ़ा । इस लघु कथा का नाम है – ‘ताश के पत्ते’ । पढ़ते–पढ़ते जब मैं क्लाइमेक्स वाले दृश्य में पहुँचा जो कि अंबाला रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में लगाई गई एक जुए की बाज़ी का वर्णन करता है तो मुझे लगा कि बस अब पाठक साहब या तो किसी का क़त्ल करवाएंगे या फिर कोई और ज़बरदस्त रहस्य खुलने वाला है । लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उस क्लाइमेक्स का ही एक्सटेंशन होकर दिल्ली शहर में कहानी के समापन तक पहुँचा तो मैंने पाया कि यह वस्तुतः एक रहस्य-कथा न होकर एक मर्मस्पर्शी सामाजिक कहानी है । आँखें नम हो गईं मेरी इस छोटी-सी कहानी का अंत पढ़कर ।

.
अगले ही दिन मैंने पाठक साहब को फ़ोन किया और उनसे इस कहानी की बाबत चर्चा की जो कि मुझे काफ़ी पुरानी जान पड़ रही थी । पाठक साहब ने स्पष्ट किया कि उन्होंने यह कहानी पचास साल से भी अधिक पहले (संभवतः १९६४ में) एक प्रकाशक के लिए फ़िलर के तौर पर लिखी थी । पाठक साहब ने यह भी बताया कि उस ज़माने में ऐसे फ़िलर कितने पन्नों के हों, यह नादिरशाही फ़रमान भी प्रकाशक महोदय की ओर से ही आयद हुआ करता था जिस पर उन्हें खरा उतरना होता था । बहरहाल पाठक साहब ने चाहे किसी भी वजह से यह कहानी लिखी मगर उनकी यह भूली-बिसरी रचना एक अत्यंत भावपूर्ण रचना है । यह छोटी-सी रचना मानवीय सोच, मानवीय स्वभाव, मानवीय सम्बन्धों और मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत संगम है ।

.
मैं आज तक ठीक-ठीक नहीं समझ पाया कि पाठक साहब जुए को ग़लत मानते हैं या नहीं । संभवतः वे तब तक उसे बुरा नहीं मानते जब तक कि वह किसी को ठगने या अपना ही सर्वनाश करने के लिए न खेला जाए । कुछ ऐसा ही नज़रिया उनकी इस रचना में भी झलकता है जो ताश के माध्यम से खेले जाने वाले जुए (फ़्लैश के खेल) को आधार बनाकर लिखी गई है । रचना का मुख्य पात्र सूत्रधार बनकर सारी कहानी पाठकों को अपनी आपबीती के रूप में सुनाता है अर्थात कहानी प्रथम पुरुष में प्रस्तुत की गई है । कहानी का यह प्रमुख पात्र एक मध्यम वर्ग का व्यक्ति है जो वर्षों पूर्व के अपने मकान-मालिक, उसकी धर्मपत्नी और उसके पुत्र से आज भी भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ अनुभव करता है । कहानी का प्रमुख प्रसंग तो क्लाइमेक्स में ही आता है जो कि अंबाला रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में वाक़या होता है । उससे पूर्व के हिस्से को उस प्रमुख प्रसंग का बिल्ड-अप माना जा सकता है । जुए में इस्तेमाल होने वाले ताश के पत्ते बेजान वस्तु होते हुए भी मानवीय आदतों और सम्बन्धों के जीवंत प्रतीक बन जाते हैं और फिर आख़िर के दो पृष्ठों में कथानक में एक-के-बाद-एक कई दिलचस्प मोड़ बहुत तेज़ी से आते हैं जो उसके चौंकाऊ अंत तक ले जाते हैं ।

images

पाठक साहब इस बात को बड़ी शिद्दत से स्थापित करते हैं कि सच्चाई मनुष्य की सोचों और दिमागी तर्कों से परे होती है । आप अपनी सोचों के आधार पर किसी के बारे में जो भी धारणा बना लें, ज़रूरी नहीं कि वह सही हो । वास्तविकता ऐसी भी हो सकती है जिसका खुलासा आपके सारे वजूद को हिलाकर रख दे । इस कहानी में पाठक साहब ने बुरे पात्रों के स्थान पर अच्छे पात्रों को लिया है और बताया है कि आप स्वयं को अच्छा इंसान मानते हैं तो दूसरों को बुरा या अखलाकी तौर पर अपने से कमतर मानना आपकी भूल है जब तक कि आप तथ्यों से पूरी तरह से परिचित न हों । संभव है कि दूसरा व्यक्ति जिसके बारे में आप अपने आप ही कोई ग़लत धारणा बना रहे हैं, आपसे भी बेहतर इंसान निकले ।

.
मैंने यह बात पहले भी कही है कि पाठक साहब द्वारा सृजित अनेक पात्र संवेदनशील इसलिए होते हैं क्योंकि पाठक साहब स्वयं एक बहुत संवेदनशील मनुष्य हैं । उनकी आधी सदी से भी अधिक पुरानी रचना ‘ताश के पत्ते’ इसका प्रमाण है । इस कहानी के अंत ने मेरे मन को कहीं गहराई तक छू लिया और पूरी पढ़ चुकने के बाद भीतर कहीं एक हूक सी उठी । मुझे झकझोर कर रख दिया उनकी इस रचना ने । आँखें भर आईं मेरी । पाठक साहब के व्यक्तित्व में कूट-कूट कर  भरी हुई संवेदनशीलता और उनकी लौह-लेखनी को एक बार फिर से मेरा सलाम । 
© Copyrights reserved

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh