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भटकन से सार्थकता तक की जीवन-यात्रा (पुस्तक समीक्षा : परछाईं)

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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उन्नीस सौ साठ के दशक से उन्नीस सौ नब्बे के दशक तक भारत में हिन्दी में सृजित ज़ेबी पुस्तकों (पॉकेट बुक्स) का बोलबाला था जिन्हें सस्ते लुगदी कागज़ पर प्रकाशित किए जाने के कारण लुगदी साहित्य के नाम से संबोधित किया जाता था और तथाकथित उच्च साहित्य की तुलना में अवमानना की दृष्टि से देखा जाता था । ऐसी पुस्तकें पॉकेट बुक इसलिए कहलाती थीं क्योंकि अपने छोटे आकार, पतले कागज तथा कागज़ के ही बने आवरण एवं अंतिम पृष्ठों (पेपरबैक) के कारण ये पढ़ने वाले व्यक्ति (पुरुष) की पतलून की ज़ेब में आराम से समा जाती थीं । विशुद्ध मनोरंजन के उद्देश्य से लिखी जाने वाली ऐसी पुस्तकों की दो श्रेणियाँ हुआ करती थीं – १. जासूसी उपन्यास जिनमें रहस्यकथाएँ (मिस्ट्रीज़) एवं सनसनी (थ्रिल) से युक्त कहानियाँ हुआ करती थीं और २. सामाजिक उपन्यास जिनके कथानक घर-परिवार, विभिन्न पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक व्यवस्थाओं, मित्रता तथा स्त्री-पुरुष प्रेम पर आधारित होते थे । लगभग तीन दशक लंबे उस कालखंड में भारत में ऐसे सामाजिक उपन्यासों की मानो बाढ़ सी आ गई थी । कुकुरमुत्तों की मानिंद दर्ज़नों हिन्दी प्रकाशक अस्तित्व में आ गए थे और प्रत्येक मास अनेक सामाजिक उपन्यास पाठकों की पठन-क्षुधा को तृप्त करने के लिए पुस्तकों की दुकानों पर छा जाते थे । इतने उपन्यास छपते थे कि पुस्तकें किराए पर लेकर पढ़ने के लिए देने वाली भी कितनी ही दुकानें चल पड़ी थीं जो पाठकों को पुस्तक को क्रय करने के कष्ट से भी बचाती थीं । किराए पर लेकर पुस्तक पढ़ो, लौटाओ और दूसरी ले जाओ । जब माँग बहुत थी और छापने वाले बहुत थे तो लिखने वालों की भी कोई कमी नहीं थी । लेखकों में जहाँ एक ओर रानू, प्रेम बाजपेयी, गुलशन नन्दा, राजहंस और अशोक दत्त जैसे वास्तविक लेखक थे तो दूसरी ओर छद्म नाम से लिखने वालों का तो मानो तांता ही लगा हुआ था । मनोज, समीर, वर्षा, कल्पना, चेतना, लोकदर्शी, अंशुल, महेश, सूरज, पवन, राजवंश, बादल, बसंत, सत्यपाल, भारत, रवि, सीमा और न जाने कितने-कितने नाम थे ।

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ऐसे अधिकतर उपन्यास कुछ विशिष्ट फ़ॉर्मूलों को लेकर लिखे जाते थे । जैसे रसोईघर में सीमित सामग्रियों को ही भिन्न-भिन्न प्रकार से मिश्रित करके अलग-अलग व्यंजन बना लिए जाते हैं, वैसे ही कुछ गिने-चुने फ़ॉर्मूलों को ही थोड़ी-सी भिन्नता के साथ बार-बार मिश्रित करके नए-नए उपन्यास लिख लिए जाते थे । बहुत-से उपन्यास तो सीधे-सीधे बॉलीवुड फ़िल्मों की कहानियों को ही तोड़-मरोड़ कर  लिख लिए जाते थे । स्वाभाविक रूप से ऐसे उपन्यासों का उद्देश्य भी सिनेमा सरीखा मनोरंजन करना ही था । कथित उच्च साहित्य की तुलना में इन्हें नीची दृष्टि से देखे जाने का एक कारण इनकी स्थापित फ़ॉर्मूलाबद्धता भी थी । ऐसे हज़ारों उपन्यासों की भीड़ में किसी उपन्यास का वास्तविक अर्थों में उत्कृष्ट होना तथा उत्तम साहित्य के सभी मानदंडों पर खरा उतरना अपवाद ही हो सकता था । हाल ही में ऐसे ही एक अपवाद को पढ़ने का मुझे अवसर मिला जिसे पढ़ने के उपरांत मेरे प्रसन्नता-मिश्रित आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, विशेष रूप से यह देखकर कि ऐसी उत्कृष्ट कृति किसी छद्म नाम वाले लेखक (या लेखिका) द्वारा लिखी गई है । उपन्यास पर लेखिका का नाम ‘संगीता’ लिखा है जो कि निश्चित रूप से कोई छद्म नाम ही है क्योंकि लेखिका का कोई परिचय या छायाचित्र नहीं दिया गया है । छत्तीस साल पहले प्रकाशित हुए इस छोटे-से उपन्यास का नाम है – ‘परछाईं’ ।

Parchhaeen

‘परछाईं’ की केंद्रीय पात्र का नाम है ‘सीता’ जिसके वैवाहिक जीवन का धागा विवाह के दो दिवस उपरांत ही टूट जाता है जब उसके पति को उसके विवाह-पूर्व प्रेम के फलस्वरूप हुए गर्भपात का पता चल जाता है । पति उसके पक्ष को सुने बिना ही उसका परित्याग कर देता है और तब आरंभ होती है दृढ़ता और साहस से युक्त व्यक्तित्व वाली सीता की कठिन डगर से युक्त जीवन-यात्रा । अब उसे अपना उचित पथ चुनकर वास्तविक अर्थों में अपने नवीन जीवन का आरंभ करना होता है । ‘परछाईं’ उपन्यास का मुख्य भाग सीता की इसी साहसिक यात्रा का वर्णन करता है जो भटकन और अनिश्चितता से आरंभ होती है लेकिन अंततः सार्थकता के गंतव्य तक पहुँचने में सफल होती है । अपनी इस यात्रा में जहाँ उसका संपर्क अपने पूर्व-प्रेमी से भी होता है और अतीत से जुड़ी भावनाएं भी पुनः उसके मन में उमड़ती हैं, वहीं दूसरी ओर उसे अपना परित्याग करने वाले पति के अंश को भी अपनी कोख से जन्म देना और पालना पड़ता है । लेकिन जीवन-संघर्ष की आँच में तपकर परिपक्व हो चुकी सीता अब अपनी भावनाओं पर संयम रखकर अपने कर्तव्य को पहचानना सीख चुकी है और किसी भी समय-बिन्दु पर स्वयं को दुर्बल नहीं पड़ने देती । श्रेय और प्रेय में भिन्नता करते हुए वह सदा श्रेय को प्रेय पर प्राथमिकता देती है तथा अपने सहज मानवीय गुणों को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए एवं सभी कर्तव्यों का उचित अनुपालन करते हुए अपने व्यक्तित्व को दिन-प्रतिदिन परिष्कृत करती चली जाती है । वह जीवन की प्रसन्नताओं का भी मूल्य समझती है तथा जब उसे एक उपयुक्त पुरुष साथी मिल जाता है तो शेष जीवन हेतु उसका हाथ थामने में भी वह संकोच नहीं करती लेकिन उसके द्वारा रखे गए विवाह-प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय होने से पूर्व वह उसे अपने अतीत के विषय में सब कुछ बता देती है ।

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उपन्यास का नाम ‘परछाईं’ इसलिए रखा गया है क्योंकि मनुष्य का अतीत उसकी परछाईं की भांति ही होता है जिससे मुक्ति नहीं पाई जा सकती । लेकिन लेखिका ने इस बात को बहुत ही सुंदरता से रेखांकित किया है कि परछाईं को कभी अपने से आगे नहीं रहने देना चाहिए । उनके मतानुसार मनुष्य को सदा प्रकाश में ही रहना चाहिए ताकि उसकी परछाईं उसके पीछे ही रहे एवं उसके समक्ष उसका पथ निरंतर प्रशस्त रहे जिस पर परछाईं का प्रभाव तनिक भी न पड़ सके । यह सत्य ही एक अनमोल जीवन-संदेश है जिसे कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए विशेषतः तब जब अतीत कटु अनुभवों एवं पीड़ाओं से परिपूर्ण हो ।

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‘परछाईं’ की नायिका सीता न केवल अपने मृदु व्यवहार तथा निष्ठायुक्त कर्तव्य-निर्वहन से उत्तरोत्तर प्रगति करती है वरन वह अपने क्षमाशील स्वभाव का परिचय भी समय-समय पर देती है । वह अपना परित्याग कर देने वाले पति को ही नहीं, जलन एवं द्वेष के कारण स्वयं को हानि पहुँचाने वाली एक दुष्टा तक को क्षमा कर देती है । उसकी क्षमा के सुप्रभाव से उस कुमार्गी स्त्री का हृदय-परिवर्तन हो जाता है एवं वह अपने कुकर्मों का प्रायश्चित्त करती हुई अपने जीवन की धारा को उचित दिशा में मोड़ देती है ।

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लेखिका ने सीता की चारित्रिक दृढ़ता एवं धैर्य का परिचय उपन्यास के आरंभ में ही दे दिया है जब वह अपने पति को अपना पक्ष सुनकर विवेकपूर्ण निष्कर्ष निकालने एवं तदनुरूप निर्णय लेने के लिए एक अवसर देती है एवं उसके प्रत्युत्तर न देने की अवधि में आत्म-शुद्धि हेतु उपवास करती है । लेकिन जब उसका विवाह-विच्छेद तय हो जाता है, तब वह न तो अपने ससुराल से कोई सहयोग लेती है और न ही अपने पैतृक-गृह की ओर देखती है । अपने मन में एक दृढ़ निश्चय करके तथा अपने आत्मबल पर विश्वास करके वह अकेली ही जीवन-समर में कूद पड़ती है ।

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‘परछाईं’ के अधिकतर पात्र सकारात्मक हैं जो नायिका की जीवन-यात्रा में उसके सहयात्री बनते हैं । लेखिका ने सम्पूर्ण उपन्यास में इस बात को बिना किसी कोलाहल अथवा आडंबर के बड़ी सौम्यता से प्रतिपादित किया है कि संसार में अच्छे व्यक्तियों की कमी नहीं है । जो व्यक्ति स्वयं भीतर से स्वच्छ एवं पुनीत है, उसे अपने जैसे सहृदय एवं निर्विकार लोग कभी-न-कभी अवश्य मिलते हैं । सीता के व्यक्तित्व एवं उपन्यास में वर्णित उसके जीवन के उच्चावचनों ने कहीं मुझे यशपाल जी की कालजयी कृति ‘झूठा-सच’ की नायिका तारा का स्मरण कराया तो कहीं नासिरा शर्मा जी के प्रेरणास्पद उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ की नायिका महरूख़ की याद दिला दी ।

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‘परछाईं’ में बहुत ही सुंदर हिन्दी भाषा देखने को मिलती है और बीच-बीच में कथा में उपस्थित प्रसंगों के अनुरूप हिन्दी एवं अंग्रेज़ी की उत्तम कविताओं के मनमोहक अंश बड़ी कुशलता के साथ ऐसे जड़े गए हैं जैसे स्वर्णाभूषणों में रत्न जड़े जाते हैं । सम्पूर्ण उपन्यास में कथा का प्रवाह आद्योपांत अत्यंत सहज है एवं पाठक को अपने साथ बहाए चलता है । उपन्यास में कहीं पर भी न तो थोथी भावुकता दर्शाई गई है और न ही कृत्रिम एवं अलंकारिक संवादों का अवलंब लिया गया है । सर्वत्र एक स्वाभाविकता व्याप्त है । पाठक अनायास ही मुख्य नारी पात्र के साथ मानसिक रूप से जुड़ जाता है तथा स्वयं को उसके साथ घटित होने वाली घटनाओं का साक्षी अनुभव करने लगता है ।

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‘परछाईं’ को सम्पूर्ण पढ़ चुकने के उपरांत मैंने अपने मन के प्रत्येक कोण को प्रकाश से जगमगाता अनुभव किया तथा मुझमें नवीन उत्साह का संचार एवं जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का पुनर्जागरण हुआ । यह निस्संदेह एक सर्जक के रूप में लेखिका की सफलता ही है । यह अत्यंत कम मूल्य वाला छोटा-सा उपन्यास सर्वप्रथम १९८० में स्टार पॉकेट बुक्स नामक संस्था से प्रकाशित हुआ था । उन दिनों युवतियों में ऐसे सामाजिक उपन्यासों को पढ़ने का बहुत चलन था । मुझे पूर्ण विश्वास है कि जिन युवतियों ने (एवं युवकों ने भी) इस उपन्यास को पढ़ा होगा, उन्हें अपने जीवन के लिए एक नई दिशा अवश्य मिली होगी । सस्ते लुगदी कागज़ पर छपा यह छोटा-सा अल्पमोली उपन्यास मेरी दृष्टि में एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति ही है जो किसी भी संवेदनशील एवं विवेकशील पाठक के हृदय को जीतने में सक्षम है ।

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