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मैं शाकाहारी क्यों हूँ ?

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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मैं शाकाहारी हूँ । कभी-कभी फ़ार्मी अंडों का सेवन कर लेने के कारण मुझे अंडाहारी भी कहा जा सकता है । लेकिन अपने मूल स्वभाव के अनुरूप मैं सुनिश्चित रूप से शाकाहारी कहलाया जाने का अधिकारी हूँ । मेरा जन्म एक मांसाहारी परिवार में हुआ । लेकिन अपनी माता के शाकाहारी होने के कारण मैं मांसाहार से दूर रह पाया (परिवार के अन्य सदस्य मांसाहारी ही रहे) । वयस्क होने पर मैंने एक मांसाहारी परिवार की कन्या से विवाह किया और विवाह के उपरांत स्थिति यह रही कि यद्यपि मेरी पत्नी मांसाहारी रही लेकिन मेरे और मेरी माता के शाकाहारी होने के कारण परिवार में सामिष भोजन कभी बनता नहीं था । विवाहोपरांत कभी-कभी हमने बाहर जाकर भोजन किया और मेरे लिए निरामिष आहार तथा मेरी पत्नी के लिए सामिष आहार मंगवाया । इस तरह हम पति-पत्नी ने भिन्न-भिन्न प्रकार का आहार एक साथ एक ही मेज़ पर बैठकर किया । हमारे विवाह के लगभग पाँच वर्षों के उपरांत जब मैं तारापुर परमाणु बिजलीघर में सेवारत था, मेरी पत्नी ने सदा के लिए मांसाहार का त्याग कर दिया । यहाँ तक कि जब मेरा स्थानांतरण हो जाने के कारण हम लोग वहाँ अपने पड़ोसियों से विदा ले रहे थे और उन्होंने हमारे लिए निरामिष और सामिष दोनों ही प्रकार के व्यंजनों से युक्त भोजन का प्रबंध किया था (वे हम दोनों की आहार संबंधी आदतों से परिचित थे), उनके आग्रह करने पर भी मेरी पत्नी ने मांसाहार को स्पर्श तक नहीं किया । अब हमारे बच्चे (एक पुत्र एवं एक पुत्री) भी अपने माता-पिता के अनुरूप ही शाकाहारी हैं ।

प्रश्न यह है कि मैं शाकाहारी क्यों हूँ ? क्या इसलिए कि मेरी माता ने मुझे शाकाहार में ही ढाला और सामिष भोजन से मुझे दूर रखा ? यह मेरे मांसाहार से दूर रहने का एक कारण है, लेकिन एकमात्र कारण नहीं है । मेरे शाकाहार के प्रति समर्पित होने का मुख्य कारण कुछ और है । इसका मुख्य कारण है मेरा संवेदनशील स्वभाव । मांसाहार कैसे बनता है ? किसी प्राणी के मांस से । और वह मांस कैसे प्राप्त होता है ? उस प्राणी को जीवन से वंचित कर के । मेरा स्वभाव तो ऐसा है कि मैं किसी के पैर में काँटा चुभने से भी अपने हृदय में पीड़ा का अनुभव करता हूँ । ऐसे में मैं उस आहार को ग्रहण कैसे कर सकता हूँ जो किसी जीते-जागते, हँसते-खेलते प्राणी का जीवन लेकर बनाया गया है ? मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यदि मेरे परिवार ने बाल्यकाल में मुझे मांसाहारी भी बनाया होता तो भी होश संभालने के तुरंत बाद मैं मांसाहार का परित्याग कर देता ।

मैंने तो हिन्दी के महान कवि दुष्यंत कुमार जी की इन पंक्तियों को सदा अपने मन में बसाकर रखा है – ‘तुम्हारे दिल की चुभन भी ज़रूर कम होगी, किसी के पैर से काँटा निकालकर देखो’ । मुझे रामचरितमानस पूरी कंठस्थ नहीं लेकिन गोस्वामी तुलसीदास जी की इन पंक्तियों को मैं कभी एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं करता हूँ – ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’ । ऐसे में  किसी निर्दोष प्राणी को असीम पीड़ा पहुँचाकर उसका प्राणान्त कर दिया जाए – केवल उसका मांस एवं देह के अन्य अंग प्राप्त करने के लिए – यह मेरे जैसे संवेदनशील व्यक्ति को कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता । जब हम किसी को जीवन दे नहीं सकते, लेने के उपरांत लिए हुए जीवन को लौटा नहीं सकते तो जीवन लेने वाले भी हम कौन होते हैं ? किसने यह अधिकार दिया है हमें ? क्या उस बुद्धि ने जिस पर हम इतराते हैं कि यह हम मनुष्यों के पास है, अन्य प्राणियों के पास नहीं ? हमारी देह में कंपाउंडर या नर्स इंजेक्शन लगाते हैं तो कितना कष्ट होता है ! देह के किसी भाग में कोई सुई या आलपिन या काँटा चुभ जाता है तो कितना कष्ट होता है ! ज़रा सोचिए कि उस निर्दोष असहाय  जीव ने कितना कष्ट सहा होगा जब मांस के लिए उसे मारा गया होगा !

प्रकृति ने पर्यावरण में अद्भुत संतुलन रखते हुए शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों ही प्रकार के जीवों का सृजन किया है । इसीलिए कहा जाता है कि जीव जीव का भोजन है (जीव जीवस्य भोजनम)। जो जीव प्रकृति ने मांसाहारी बनाए हैं, उनके दाँतों की बनावट और शक्ति उसी प्रकार की है । मनुष्यों के दाँत उस प्रकार के नहीं होते जिस प्रकार के शेर या बाघ या तेंदुए के होते हैं । स्पष्ट है कि प्रकृति ने मनुष्य को मांसाहारी श्रेणी में नहीं सिरजा है । अतएव मांसाहार का सेवन करके हम न केवल अपने आपको अनावश्यक रूप से हिंसक जीवों की श्रेणी में ले आते हैं वरन यह भी सिद्ध कर देते हैं कि हम अत्यंत लालची और लालच के हवाले होकर परपीड़क भी बन गए हैं । पशुओं के मांस तथा अन्य अंगों का कारोबार मनुष्य के लालच के कारण ही तो चलता और फलता-फूलता है । क्यों मांसाहार के लिए दूसरों को उकसाया जाता है ? क्यों मांस से बने पदार्थों का विज्ञापन होता है ? इसीलिए न कि इस व्यापार में लगे लोगों की तिज़ोरियां भरती रहें ? हमारी इन दुष्प्रवृत्तियों के लिए हमारा लालच, अज्ञान और संवेदनहीनता ही दोषी हैं, प्रकृति नहीं । प्रकृति ने तो सदा ही ममतामयी माता बनाकर अपनी सभी संतानों को सम्पूर्ण निष्पक्षता के साथ समान रूप से पाला है, यह तो मनुष्य है जो बारंबार स्वयं को दोषी और अनुपयुक्त संतान सिद्ध करने में लगा रहता है । प्रकृति तो सुमाता ही है और रहेगी, कुपुत्र तो हम हैं । स्वार्थी और हृदयहीन कुपुत्र !

साढ़े तीन दशक पूर्व 1979 में पिक्स इंटरनेशनल द्वारा एक अच्छी हिन्दी फ़िल्म बनाई गई थी – ‘हबारी’ जिसमें एक मनोरंजक एवं संवदनाओं से ओतप्रोत कथा के द्वारा प्रकृति तथा वन्यजीवन के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक एवं प्रेरित किया गया था । दो दशक के उपरांत 1999 में ऐसी ही संवेदनशील, ज्ञानदायक एवं प्रेरक हिन्दी फ़िल्म ‘सफ़ारी’ भी बनाई गई थी । अब हालत यह है कि पेटा जैसे अधिनियमों एवं तथाकथित पशु-अधिकार-संरक्षकों के कारण वास्तविक पशुओं को लेकर कोई फ़िल्म नहीं बनाई जा सकती । ये पशु-अधिकारों के स्वयंभू ठेकेदार मदारियों एवं सर्कस-संचालकों जैसे पशुओं की सहायता से रोज़ी-रोटी कमाने वाले मेहनतकश और ईमानदार लोगों पर पिल पड़ने को सदा तत्पर रहते हैं (क्योंकि ये बेचारे कोई वोट बैंक नहीं होने के कारण इनके लिए आसान शिकार सिद्ध होते हैं) लेकिन देश-भर में धड़ल्ले से चल रहे क़त्लख़ानों पर इनका बस नहीं चलता जो रोज़ हज़ारों निरीह जानवरों को मौत के घाट उतार देते हैं (क्योंकि इनसे जुड़े लोग एक बहुत बड़े वोट बैंक की ताक़त रखते हैं) । सर्कस बंद हो गए हैं और उनमें काम करने वाले आज अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन निर्दोष प्राणियों पर बर्बर अत्याचार के माध्यम वधिक-गृह विना किसी विघ्न-बाधा के चल रहे हैं और हमारे देश की वोट बैंक राजनीति के चलते संभवतः सदा चलते रहेंगे । मांसाहार को त्याग कर तथा पशुओं के चमड़े और अन्य अंगों से बनी वस्तुओं का मोह त्याग कर उपभोक्ता ही इस स्थिति में सुधार कर सकते हैं क्योंकि जब पशु उत्पादों का बाज़ार बंद हो जाएगा तो उनके प्राणों की रक्षा का मार्ग भी स्वतः ही खुल जाएगा ।

गोरक्षा आंदोलन हमारे देश में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने वोट बैंकों के अनुरूप बयानबाज़ी करते हुए इसकी आँच में अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे हैं । मेरा कहना यह है कि केवल गाय ही क्यों, सभी मासूम जानवरों की जानें कीमती हैं और बचाई जानी चाहिए । संविधान ने नागरिकों को जीवन का अधिकार दिया है किन्तु जब सभी प्राणी उसी परमपिता की ही संतान हैं तो जीवन का जितना अधिकार मनुष्यों को है, अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार उससे कम नहीं है । क्या वे केवल इसलिए जीवन के अधिकारी नहीं समझे जाएं क्योंकि वे चुनाव में वोट नहीं डालते ? ईश्वर ने मनुष्य को मस्तिष्क इसलिए नहीं दिया है कि वह उसके द्वारा सृजित अन्य प्राणियों का हंता बने । मनुष्य स्वयं के सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने की डींग हाँकता है लेकिन उसकी श्रेष्ठता अन्य प्राणियों को प्रताड़ित करने में कैसे हो सकती है ? बेबस मासूमों को मारने में क्या बहादुरी है ?  जब मनुष्य स्वयं मरने से डरता है तो उसे यह भी समझना चाहिए कि जिस तरह उसे अपनी जान प्यारी है, उसी तरह सभी प्राणियों को अपनी जान प्यारी है । उसे कोई हक़ नहीं है अपनी ख़ुदगर्ज़ी के लिए किसी की जान लेने का । मैं अपने मांसाहारी मित्रों से यही कहना चाहता हूँ कि भगवान से डरो दोस्तों, किसी मासूम की बेवजह हत्या न करो, न उसके लिए निमित्त बनो, यह पाप अपने ऊपर मत चढ़ाओ ।

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