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इच्छामृत्यु यानी ‘लिविंग विल’ पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

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इच्छामृत्यु यानी लिविंग विल पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है. कोर्ट ने लिविंग विल में पैसिव यूथेनेशिया को इजाजत दी है. संविधान पीठ ने इसके लिए सुरक्षा उपायों के लिए गाइड लाइन की है. पैसिव यूथेनेशिया और लिविंग विल को लेकर संवैधानिक पीठ ने अपने ५३८ पेज के फैसले में विस्तार से बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ०९.०२.२०१८ को ये भी साफ कर दिया कि आपात स्थिति या बेहद ज़रूरी नाजुक हालत में जब मरीज़ की हालत बेहद गम्भीर खतरे में हो तभी चिकित्सा उपकरण हटाने के लिए सहमति ली जाए.

 

 

लिविंग विल की प्रक्रिया

• कोई भी बालिग व्यक्ति जो दिमागी रूप से स्वस्थ हो, अपनी बात को रखने में सक्षम हो और इस विल के नतीजे को जानता हो, यह विल लिख सकता है.

• वही व्यक्ति यह विल कर सकता है जो बिना किसी दबाव, किसी मजबूरी और बिना किसी प्रभाव के हो.

• व्यक्ति को लिविंग विल को लेकर यह बताना होगा कि किस स्थिति में मेडिकल ट्रीटमेंट बंद किया जाए. यह ब्यौरा व्यक्ति को लिखित में देना होगा ताकि जीवन और मौत के बीच दर्द, लाचारी और पीड़ा लंबी न खिंचे एवं मौत गरिमाहीन ढंग से न हो.

• यह भी लिखा होना चहिए कि लिविंग विल को लिखने वाले को नतीजा पता हो और अभिभावक और संबंधी का नाम लिखा हो. जब वह फैसला लेने की स्थिति में न हो तो उसकी जगह पर कौन फैसला ले, उसका नाम लिखे.

• किसी ने एक से ज्यादा लिविंग विल की हो तो आखिरी विल मान्य होगी. लिविंग विल को बनाते समय दो गवाहों की जरूरत होगी. ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास के सामने ये लिविंग विल लिखी जाएगी.

 

लिविंग विल को लेकर कैसे होगी कार्यवाही

• जब लिविंग विल लिखने वाला लाइलाज बीमारी का शिकार हो जाए तो घरवाले डॉक्टर को बताएंगे.

• डॉक्टर इसको ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से कन्फर्म करेंगे लिविंग विल वाले डाक्यूमेंट्स.

• जब डॉक्टर को यह भरोसा हो जाएगा कि अब यह व्यक्ति ठीक नहीं हो सकता और वह केवल लाइफ सपोर्ट पर ही जीवित रहेगा तब मेडिकल बोर्ड का गठन किया जाएगा.

• मेडिकल बोर्ड में तीन फील्ड के एक्सपर्ट होंगे जो घरवालों से बातचीत कर यह तय करेंगे कि लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाय या नहीं.

• बोर्ड अपने फैसले के बारे में इलाक़े के DM को सूचित करेंगे. DM फिर इसमें एक बोर्ड बनाएगा. तीन सदस्यीय बोर्ड का गठन होगा और फिर बोर्ड अपनी रिपोर्ट ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को बताएगा. ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट रोगी के पास जाएगा और मुआयना करके घरवालों से बातचीत करेगा. इसमें यह पूछेगा कि लिविंग विल को लागू किया जाए या नहीं. मतलब कि यह फैसला माननीय न्यायधीशों ने बहुत ही सोच समझकर लिया होगा और इसे लागू करते समय काफी सावधानियां बरती जायेंगी.

 

महाभारत की कथा में एक जादुई तालाब के किनारे अपने अचेत पड़े चार भाइयों को देख रहे युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा था, सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है. युधिष्ठिर ने कहा, सबको मालूम है कि मृत्यु अवश्यंभावी है, लेकिन सब ऐसे जीते हैं जैसे मृत्यु आनी ही नहीं है. हमारी मृत्यु जन्म के साथ ही पैदा होती है, उसके पहले कोई मृत्यु नहीं होती, जीवन इस मृत्यु को पीछे धकेलता जाता है, जन्मदिन की बधाई इस बात की बधाई है, यह बात गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने तब कही थी जब उनसे किसी ने पूछा कि जन्मदिन की बधाई क्यों, उम्र तो एक साल घट गई.

 

मौत से आप बच नहीं सकते. बुद्ध ने अपने बचपन में ही समझ लिया था कि बीमारी आती है, बुढ़ापा आता है और मृत्यु आती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के संविधान पीठ ने जब इच्छा मृत्यु पर कुछ शर्तों के साथ मुहर लगाई तो दरअसल वे जीवन और मृत्यु के दार्शनिक संबंध या मृत्यु की अपरिहार्यता पर ही नहीं, उस सामाजिक संकट पर भी ध्यान दे रहे थे जो हमारे समाज में वृद्धों के अकेलेपन और बीमारी से पैदा हुआ है.

 

बूढ़ा या बीमार होना अभिशाप नहीं है, अकेला होना कहीं ज़्यादा बड़ा अभिशाप है. आप अकेले होते हैं तो बुढ़ापा कहीं ज़्यादा तेज़ी से आपका पीछा करता है. बीमारी कहीं ज़्यादा जल्दी आपको घेरती है. यह सच है कि हमारे पुराने समयों में भी ऐसे बुज़ुर्ग रहे जो घरों की उपेक्षा झेलते रहे- अकेले कोनों में बीमार पड़े रहे, लेकिन इच्छामृत्यु जैसे खयाल ने उनको नहीं घेरा. भारतीय समाज में यह एक नई परिघटना है- ऐसे बुजुर्ग बढ़ रहे हैं जिनको अपने लिए यह इच्छामृत्यु चाहिए. निस्संदेह एक गरिमापूर्ण जीवन के गरिमापूर्ण अंत की कामना से ही यह ज़रूरत उपजी है.

 

अरुणा शानबाग के जिस मामले से यह सारा प्रसंग इतना बड़ा हुआ, उसका एक और सबक है. 42 साल तक कोमा में रही अरुणा शानबाग के लिए इच्छामृत्यु की मांग वे लोग करते रहे जो उन्हें बाहर से देखते रहे. इसका विरोध उन लोगों ने किया जो उनकी देखभाल करती थीं. किंग एडवर्ड कॉलेज मुंबई की वे नर्सें अपनी एक सोई-खोई सहेली को रोज बहुत एहतियात से संभाल न रही होतीं तो वह 42 साल इस हाल में नहीं बचती.

 

इन नर्सों ने कहा कि वे जब तक संभव होगा, अरुणा शानबाग को ज़िंदा रखेंगी. एक अपराध ने अगर अरुणा शानबाग को हमेशा-हमेशा के लिए कोमा में भेज दिया तो कुछ लोगों के सरोकार ने उनके लिए जीवन की लड़ाई लड़ी. उनके जीवन को गरिमापूर्ण बनाया. अदालत ने भी इस सरोकार का सम्मान किया था, तब परोक्ष इच्छामृत्यु के अपने फ़ैसले की छाया 40 बरस से सोई एक बेख़बर काया पर नहीं पड़ने दी थी.

 

दरअसल जीवन का मूल्य इसी में है. हम जितना अपने लिए जीते हैं, उतना ही दूसरों के लिए भी. दूसरों से हमारा जीवन है, हम दूसरों के जीवन से हैं. लेकिन नए समय के दबाव सबको अकेला कर रहे हैं. परिवार टूटे हुए हैं, बच्चे परिवारों से दूर हैं, मां-पिता अकेले हैं, टोले-मोहल्ले ख़त्म हो गए हैं, फ्लैटों में कटते जीवन के बीच बढ़ता बुढ़ापा एक लाइलाज बीमारी में बदलता जाता है. एक बहुत बारीक मगर क्रूर प्रक्रिया में हम सब जैसे भागीदार होते चलते हैं.

 

इच्‍छामृत्यु इसी क्रूर प्रक्रिया से निकलने की एक लंबी आख़िरी सांस जैसी गली है. सुप्रीम कोर्ट अगर यह गली न खोलता तो वे हताशाएं और बड़ी होती जातीं जो हमारे समय में ऐसे विकल्पों को भी आजमाए जाने लायक बनाती हैं. शायद यह फ़ैसला कुछ लोगों को याद दिलाए कि उनके अपने इतने अकेले और हताश न छूट जाएं कि अपनी मृत्यु के लिए अपना मेडिकल बोर्ड बनवाने लगें. यह बहुत सदाशय कामना है, लेकिन ऐसी ही कामनाओं के बीच जीवन की सुंदरता और सहजता बचती भी है.

 

संभावना और डर इस बात का है कि इस कानून का लोग गलत फायदा न उठाने लगे. ऐसे ही आज आधुनिक समाज में सामाजिकता और पारिवारिक रिश्तों की अहमियत कम या कहें धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है. घर में बूढ़े बुजुर्ग के प्रति सेवाभाव ऐसे ही कम होता जा रहा है. बुढ़ापे में अनगिनत लाइलाज बिमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है. मशीनी युग में मानवीय संवेदना का अभाव या सिकुड़ते वक्त का तकाजा. बहुत सारे बुजुर्ग अपनी संपत्ति को अपने हाथ में बचाकर रखते हैं, ताकि उस संपत्ति की लालच में उसकी संतान अंतिम समय तक सेवा करते रहेंगे.

 

आज इस प्रकार की सेवा के लिए नर्स या परिचारक उपलब्ध हैं और वे अच्छी तरह से सेवा करना भी जानते हैं. पर बड़े बुजुर्ग जो अंतिम घड़ी में चाहते हैं , अपनों का अपने आस पास में उपस्थिति और सेवा भाव, मीठे बोल और सद्व्यवहार जिसकी दिन प्रति दिन कमी होती जा रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा भारतीय समाज अत्यंत ही कठिन परिस्थतियों में इस निर्णय को क्रियान्वित करेगा. हमारा दर्शन है जबतक सांस तब तक आस. बड़े बुजुर्ग उस बड़े बूढ़े वृक्ष की भाँती हैं जो फल नहीं देने की स्थिति में छाया तो दे ही सकते हैं. बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद ही हमारे लिए छाया है, वरदहस्त है. जय श्री राम के साथ में हम लोग अंतिम यात्रा में यही तो कहते हैं कि राम नाम सत्य है… अर्थात मृत्यु ही अंतिम सत्य है.

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