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रियो ओलम्पिक में हमारी बेटियां

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१८ अगस्त को पूरे देश में राखी का त्यौहार मनाने की धूम थी. सभी लोग राखी की तैयारियों में लगे थे। एक जिज्ञाषा के रूप में शुबह-शुबह जैसे ही लोगों ने टी वी स्टार्ट किया, एक शुभ समाचार से करोड़ों भारतीयों कि दिल बल्लों उछलने लगा। भला इससे बढ़कर राखी के दिन क्या उपहार हो सकता था कि भारत के खाते में एक महिला पहलवान ने रियो ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतकर सबको चौंका दिया। यह भारत के लिए पहल पदक था!
फ्रीस्टाइल महिला पहलवान साक्षी मलिक ने बुधवार को रियो ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर भारत के पदक के इंतजार को खत्म किया। 23 साल की साक्षी ने कजाकिस्तान की अइसुलू टाइबेकोवा को 58 किलोग्राम वर्ग में पराजित किया।

कोरिओका एरेना-2 मे हुए इस मुकाबले मे एक समय साक्षी 0-5 से पीछे थीं लेकिन दूसरे राउंड में उन्होंने उलट-पलट करते हुए इसे 8-5 से जीत लिया। साल 2015 में हुए एशियन चैम्पियनशिप में पोडियम फिनिश करने वाली साक्षी ओलम्पिक में कुश्ती में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं। महिला रेसलर साक्षी मलिक ने रियो ओलंपिक में कांस्य पदक हासिल कर इतिहास रच दिया है। उन्होंने महिलाओं की फ्रीस्टाइल कुश्ती के 58 किलोग्राम भार वर्ग में भारत के लिए पदक जीता। ये रियो ओलंपिक में भारत का पहला पदक है। साक्षी ओलंपिक में भारत के लिए पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान बन गई हैं।
साक्षी के पिता सुखबीर मलिक (दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन) डीटीसी दिल्ली में बतौर कंडक्टर नौकरी करते हैं। जबकि उनकी मां सुदेश मलिक रोहतक में आंगनबाड़ी सुपरवाइजर है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, साक्षी ने महज 12 साल की उम्र से रेसलिंग की शुरुआत की थी। उनकी मां नहीं चाहती थी कि बेटी पहलवान बने। उनका मानना था कि पहलवानों में बुद्धि कम होती है। बता दें कि साक्षी के परिवार में उसके दादा भी पहलवान थे। वह उन्हीं के नक्शे कदम पर है।
साक्षी मलिक रोजाना 6 से 7 घंटे प्रैक्टिस करती हैं। ओलिंपिक की तैयारी के लिए वे पिछले एक साल से रोहतक के साई(स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया) होस्टल में रह रही थीं। उन्हें वेट मेनटेन करने के लिए बेहद कड़ा डाइट चार्ट फॉलो करना पड़ता था। कड़ी प्रैक्टिस के बावजूद वे पढ़ाई में अच्छे मार्क्स ला चुकी हैं। रेसलिंग की वजह से उनके कमरे में गोल्ड, सिल्वर व ब्रांज मेडल का ढेर लगा है।
साक्षी की मां सुदेश मालिक के अनुसार पहलवान बनने के बाद साक्षी चुप-चुप रहती है। अब गंभीर भी हो गई है। कुछ कहना हो या करना हो, वह पूरी तरह गंभीर नजर आती है। पहले ऐसी नहीं थी। बचपन में बेहद चुलबुली, नटखट, शरारती हुआ करती थी। दादी चंद्रावली की लाडली थी। पहलवान बनने के बाद वह एकदम बदल गई है। जब साक्षी तीन महीने की थी, तब नौकरी के लिए उसे अकेला छोड़ना पड़ा। वह अपने दादा बदलूराम व दादी चंद्रावली के पास मौखरा में तीन साल रही। छोटी उम्र में ही उसे काम करने का बहुत शौक था। अब भी घर आती है तो रसोई में मदद करती है।
साक्षी का सफरनामा गोल्ड- 2011, जूनियर नेशनल, जम्मू. ब्रॉन्ज- 2011, जूनियर एशियन, जकार्ता. सिल्वर-2011, सीनियर नेशनल, गोंडा. गोल्ड- 2011, ऑल इंडिया विवि, सिरसा.
गोल्ड- 2012, जूनियर नेशनल, देवघर. गोल्ड-2012, जूनि. एशियन, कजाकिस्तान.
ब्रॉन्ज- 2012, सीनियर नेशनल,गोंडा. गोल्ड- 2012, ऑल इंडिया विवि अमरावती.
गोल्ड- 2013, सीनियर नेशनल, कोलकाता. गोल्ड- 2014, देन सतलज मेमोरियल, यूएसए
गोल्ड- 2014, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी, मेरठ
सबसे बड़ी बात यह है कि वह ऐसे प्रदेश हरियाणा से आती है जहाँ महिला भ्रूण हत्या शिखर पर है। यहाँ खाप पंचायतें अपना निर्णय सुनाती हैं जो महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकती है। यह पूरे देश के लिए गौरव की बात है साथ ही इसने भारत के लिए पहल पदक उस दिन जीता जिस दिन देश रक्षा बंधन का त्योहार मना रहा था। महिलायों अपने भाइयों की कलाई में राखी बाँध अपनी रक्षा का वचन ले रही थी जबकि इस २३ वर्षीय पहलवान महिला ने पूरे भारत देश की लाज रख ली।
इससे पहले दीपा कर्मकार जिमनास्टिक की वक्तिगत स्पर्धा में चौथे स्थान पर रही यह भी अपने देश के लिए गर्व की बात ही कही जायेगी।
वही १९ अगस्त २०१६ को रियो ओलिंपिक में महिला सिंगल्स बैडमिंटन के फाइनल में पी वी सिंधु को वर्ल्ड नंबर वन कैरोलिना मारिन के खिलाफ हार का सामना करना पड़ा और वह भारत के लिए गोल्ड जीतने से वंचित रह गईं। हालांकि उनके खाते में सिल्वर आया है, जो अपने आप में भारत के लिहाज से एक रिकॉर्ड हैं। वह ओलिंपिक में बैडमिंटन में सिल्वर जीतने वाली देश की पहली महिला बन गई हैं। उनसे पहले देश की सभी 4 महिला खिलाड़ियों (कर्णम मल्लेश्वरी, एमसी मैरीकॉम, साइना नेहवाल और साक्षी मलिक) ने ओलिंपिक में ब्रॉन्ज ही जीता था।
ओलिंपिक बैडमिंटन फाइनल में पहुंचने वाली पीवी सिंधु देश की पहली खिलाड़ी रहीं. उनसे पहले साइना नेहवाल ओलिंपिक सेमीफाइनल में पहुंचने वाली पहली खिलाड़ी थीं.

२१ वर्षीय सिन्धु ने अब तक ६ अन्तराष्ट्रीय ख़िताब जीते हैं, इनमे तीन बार मकाउ ओपन, दो बार मलेशिया मास्टर्स, और एक बार इंडोनेसिया ओपन ख़िताब. इसके अलावा दोबार विश्व चैम्पियनशिप २०१३ और २०१४ में कांस्य पदक। दो बार ३०१४ और २०१६ में उबेर कप, इचियोन एशियाई गेम्स २०१४ में टीम स्पर्धा में कांस्य, ग्लासगो कॉमन वेल्थ २०१४ में कांस्य तथा २०१४ एशियन चैम्पियशिप में कांस्य।
कहते हैं सिन्धु के पिता पी वी रमना ने रियो की तैयरी के लिए रलवे की नौकरी से आठ महीने की छुट्टी ले रक्खी थी। हर रोज शुबह चार बजे उठकर अपनी बेटी को पुतेला गोपीचंद की अकादमी तक लेकर जाते थे. बिना माता पिता के सहयोग और हौसला अफजाई के संभव नहीं है बेटियों को आगे बढ़ना। हम सबको इससे सीख लेने की जरूरत है।
सिन्धु के फ़ाइनल में पहुँचने से पूरे भारत को गोल्ड की आशा थी. पूरा देश भारत पकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच की तरह टी वी पर आँखे गड़ाए हुए था। सबको गोल्ड की चाहत थी, पर सिन्धु के मैच से सभी प्रभावित दिखे और सबों ने उसे दिल से बधाइयाँ दीं।
सिन्धु को बधाई देने वालों ने उसके कोच फुलेला गोपीचंद के मिहनत की भी तारीफ की जिसने सायना नेहवाल और पी वी सिन्धु जैसे बैडमिंटन प्लेयर पैदा किये। कहते हैं गोपीचंद ने बैडमिंटन अकादमी खोलने के लिए अपने घर तक गिरवी रख दिया। ऐसे द्रोणाचार्य को देश नमन करता है।
इसके अलावा फाइनल तक पहुँचने वाली चौथी नंबर हासिल करने वाली महिला धावक ललिता शिवाजी के योगदान को भी सराहा जाना चाहिए। तीरंदाजी के क्षेत्र में दीपिका कुमारी, लक्ष्मी मांझी, और बोमल्या देवी ने बहुत अच्छा नहीं किया फिर भी उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। साथ ही महिला हॉकी टीम की भी सराहना की जानी चाहिए ।
तात्पर्य यही है कि हमारे देश में प्रतिभा की कमी नहीं है, जरूरत है प्रतिभा को तलाशने की और उसे निखारने की. हमने क्रिकेट को ज्यादा प्राथमिकता दी है और उसमे अच्छा कर रहे हैं. और भी कई खेल हैं उनमे हम अच्छा कर सकते हैं. अगर समुचित प्रयास हो तो! फिलहाल जय हो भारत की बेटियों की और उसके अपूर्व योगदान की. हम क्या इतना प्रण नहीं कर सकते कि हम बेटियों, बहनों, माओं को भी पुरुषों के बराबर का दर्जा दें और उसे हर मोड़ पर प्रोत्साहित करें! हतोत्साहित तो कदापि न करें! फिर से एक बार जय भारत और जय भारत की बुलंद तस्वीर बनाती बेटियां !

– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

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