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अविस्मरणीय

उत्थान
उत्थान
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    ठंडी हवा, काली घटा, आ ही गयी झूम के.
    प्यार लिए डोले हँसी, नाचे जिया घूम के.

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पड़ोस में किसी ने रेडियो ऑन कर दिया था. गीत सुनकर मैंने अपनी दृष्टि आस-पास दौड़ाई. अनायास ही मुझे वह घटना स्मरण हो आयी. वैसा ही अनुकूल वातावरण, वैसी ही ठंडी-ठंडी हवा के झोंके, वैसी ही हल्की-हल्की रिमझिम बारिश और वैसी ही काली-काली घटाएं. मैं पिताजी के किसी कार्यवश उनके एक मित्र के घर जा रहा था. पिछली रात्रि कई दिनों पश्चात हुयी वर्षा द्वारा भीषण गर्मी से राहत मिली थी. ठंडी-ठंडी हवा के झोंकों में मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक आ रही थी. वर्षा तो थी, पर भिगोने के लिए पर्याप्त नहीं थी. बस हल्की-हल्की रिमझिम, नन्हीं-नन्हीं बुंदकियाँ. वृक्षों पर पत्रदल वर्षाजल में धुलकर मानो नव उमंगों से भर उठा था. वातावरण अत्यंत सुहावना प्रतीत होता था. मन अत्यंत प्रसन्न था.
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पिताजी के मित्र के घर पहुँच कर मैंने घंटी बजा दी, और द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगा. मैंने घर का बाहर से ही निरीक्षण किया. छोटा सा बरामदा था जो की जैसे अभी-अभी ही स्वच्छ किया गया था. किनारे-किनारे करीने से कतारबद्ध गमलों में मनीप्लांट लगा था. थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करने के पश्चात भी जब द्वार न खुला तो मन कुछ व्याकुल हो उठा. मैंने ध्यान से सुनने का प्रयास किया. अन्दर रेडियो पर गीत बज रहा था.
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    ठंडी हवा, काली घटा, आ ही गयी झूम के.
    प्यार लिए डोले हँसी, नाचे जिया घूम के.

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मैंने द्वार के कुंजी-छिद्र से भीतर झाँक कर देखा. एकाएक मुझे लगा की मानो मैं स्वप्नलोक में हूँ. भीतर प्रांगण में एक अत्यंत सुन्दर अष्ट-दशी यौवना रेडियो के सम्मुख बैठी अपने केश संवारने में तल्लीन थी. उसे अपने आस-पास की कोई सुध नहीं थी. श्वेत वर्ण, बड़ी-बड़ी काली चंचल आँखें, कुछ तीखी सी मुखाकृति, नीला परिधान, ललाट पर छोटी सी नीले ही रंग की बिंदी, मानो वह गीत की लय पर ही केश संवार रही हो. पहले वह अपने लम्बे काले बालों को सामने बाएं कंधे पर लाती, फिर धीरे-धीरे उनमें कंघी फिराते हुए ऊपर से नीचे तक ले जाती, फिर हल्का सा झटका देकर उन्हें पीछे की ओर करती और दर्पण में विभिन्न कोणों से अपना प्रतिविम्ब निहारती. और तब ऐसा प्रतीत होता मानो कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो, बस फिर हल्का सा झटका और केश पुनः बाएं कंधे पर और पुनः वही सब कुछ.
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किन्तु एक-एक हाव-भाव, एक-एक क्रिया सब कुछ मानो उसी गीत की लय पर. कदाचित वह मन ही मन उसी गीत को गुनगुना भी रही थी. मैंने ध्यान से देखा, उसकी मुखाकृति गीत की लय के साथ परिवर्तित सी हो रही थी. सम्पूर्ण तन्मयता, मात्र गीत एवं केश.
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    आज तो मैं अपनी छवि देख के शरमा गयी,
    जाने ये क्या सोच रही थी के हंसी आ गयी.

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ठीक उसी पंक्ति के साथ उसने तनिक ग्रीवा लम्बी कर, भवें ऊपर उठाकर दर्पण में झांका, फिर धीरे से उसके अधर खिंचे, अभी दन्त-श्रंखला दृष्टिगोचर भी नहीं हुयी थी कि धीरे से लजाकर उसने अपनी बांयी हथेली से हंसी छुपाते हुए ग्रीवा नीचे झुकाई और मुख दूसरी ओर घुमा लिया.
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बस उस दृश्य को और देखने की क्षमता मुझमें नहीं थी. मैंने अपनी आँखें मूँद लीं. मन प्रसन्न तो था पर कुछ विचित्र से भाव आते थे, अपराध-बोध, या फिर ग्लानि, क्या कहूं उन्हें. गीत सुनायी तो देता था परन्तु कदाचित उसमें अब लय नहीं थी. गला शुष्क हो उठा था. तृप्त होकर भी मन स्वयं को कोसता था कि क्या अधिकार था मुझे उस निश्छल सौंदर्य को इस प्रकार छुप कर देखने का. मैं खड़ा हो गया और “ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन”, कई बार घंटी बजा दी.
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पिताजी के मित्र ने द्वार खोला. मैंने उत्सुकता वश तिर्यक दृष्टि से उनके पीछे देखा.
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वह वहाँ नहीं थी.
गीत समाप्त हो चुका था.
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-पंकज जौहरी.

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