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गाँव लौटे प्रवासी मजदूरों का पुनः पलायन

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नोवल कोरोना वायरस से उत्पन्न वैश्विक महामारी ने हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा उथल पुथल मचाया है। आज पूरा विश्व इस महामारी से जूझ रहा है। विश्व का कोई भी देश या कोना इससे अछूता नहीं है। अभी तक जो भी अध्ययन सामने आये हैं उससे एक बात साफ है कि जब तक कि इसकी कोई दवा या वैक्सीन नहीं आ जाती हमें इसके साथ ही जीना है। पूरे विश्व में वैज्ञानिक इसकी सटीक दवा एवं इसकी वैक्सीन कि खोज में लगे हैं लेकिन अभी इसमें वक्त लगेगा।

 

 

चीन के वुहान शहर से निकले इस वायरस ने पूरे विश्व में अभूतपूर्व तबाही मचायी, भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। इसके संक्रमण को रोकने के लिए भारत में 25 मार्च से लॉकडाउन लगाया गया। आवश्यक सेवाओं को छोड़ कर सब कुछ थम गया, रेल, बस एवं हवाई सेवाएं सब ठप हो गईं। जो जहां था वहीं कैद सा हो गया। लॉकडाउन से संक्रमण की रफ्तार को काबू में रखने में मदद मिली वहीं इस दौरान आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने के साथ साथ इससे जुड़े अन्य आवश्यक सुरक्षा उपकरण आदि की समुचित व्यवस्था हो सकी। ऐसा न किया गया होता तो आज हालात कैसे होते इसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है।

 

 

परन्तु इसके साथ ही आर्थिक गतिविधियां थम गई। इसका सबसे अधिक बुरा प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा। काम धंधे सब बंद होने के कारण कुछ दिन तक तो गुजारा हुआ लेकिन लॉकडाउन बढ़ने के साथ स्थिति बदतर होने लगी। खाने पीने की दिक्कत के साथ साथ रहने की समस्याएं आने लगी, मकान मालिक भाड़े के लिए परेशान करने लगे। अनिश्चित भविष्य से उनका सब्र का बांध टूटने लगा और फिर सब अपने गाँव की ओर प्रस्थान करने लगे। पैदल, ठेले, साइकिल अथवा ट्रक, ट्रैक्टर आदि पर सड़क के रास्ते या रेल पटरियों के सहारे हुजूम के हुजूम प्रवासी मजदूर अपने अपने गांव की ओर चल पड़े।

 

 

 

टीवी, समाचार पत्रों एवं सोशल मीडिया में जिस तरह की दर्दनाक तस्वीरें दिखायी दी वह सब दिल को झकझोर देने वाली थीं। बाध्य होकर केंद्र और राज्य सरकारों को उन्हे अपने गन्तव्य तक पहुँचाने के लिए स्पेशल श्रमिक ट्रेन एवं बसों की व्यवस्था करनी पड़ी। उनके खान पान एवं जांच तथा क्वॉरन्टीन की व्यवस्था करना सचमुच एक बड़ा काम था। इस दौरान सड़क और पटरियों पर कई सारे जानलेवा दर्दनाक हादसों में बहुत से मजदूरों की जान गई।

 

 

समस्याएं यहीं खत्म नहीं होतीं। बड़ी समस्याएं तो अब शुरु हो रही हैं उन्हे रोजी रोटी एवं रोजगार उपलब्ध कराने की। प्रवासी मजदूर मुख्यतः बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान से पलायन करते हैं। केंद्र सरकार ने गाँव लौटे प्रवासी मजदूरों के लिए ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ लायी जिसका शुभारम्भ शनिवार को प्रधान मंत्री द्वारा किया गया। इसके अन्तर्गत ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े 25 कार्यों की पहचान की गई है जिसमें आंगनवाड़ी केंद्र, ग्रामीण सड़कें, ग्रामीण आवास, ररबन (RURBAN) मिशन आदि काम शामिल हैं। इस मद में इन छह राज्यों के 116 जिलों में सरकार 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी जिसके तहत प्रवासी मजदूरों को फिलहाल 125 दिनों तक काम देने का लक्ष्य है। यह एक सही समय पर लिया गया सार्थक कदम है, इससे इन मजदूरों को जरूर राहत मिलेगी।

 

 

 

इनमें से कुछ राज्य सरकारों ने वापस आये मजदूरों को अपने ही राज्य में अपने स्तर से योजना बनाकर रोजगार उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता दिखाई हैं, लेकिन योजनाओं को इतनी जल्दी जमीन पर उतरना इतना आसान नहीं है। साथ ही इन मजदूरों की संख्या जितनी बड़ी है, उन सब को रोजगार तत्काल उपलब्ध कराना नामुमकिन है। इधर जब 1 जून से लॉकडाउन में ढील देकर थमी हुई अर्थव्यवस्था को गति देने की प्रक्रिया शुरु की गई है तो उन शहरों में जहां ये मजदूर काम करते थे वहाँ इनके बिना अब पूरी गति से गतिविधियां शुरु करना भी प्रायः असंभव ही है। ऐसे में मजदूरों का फिर से शहरों की ओर जाना निश्चित प्रायः ही है। सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि वे शहर जहां से ये मजदूर वापस लौटे हैं वे प्रायः सभी कोरोना के हॉटस्पॉट बने हुए हैं जहां अब भी कोरोना मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

 

 

 

अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए आवागमन से लेकर सभी क्षेत्रों को खोलना पड़ेगा, तब निश्चित रूप से इन शहरों में भीड़ बढ़ेगी और तब कोरोना संक्रमण का ग्राफ कैसा होगा यह सोचकर ही डर लगता है। आज के दिन मुंबई एवं दिल्ली के कोरोना मरीजों की संख्या और अस्पतालों का हाल देख सुनकर आने वाला समय तो भयावह ही लगता है। ऊपर से सामान्य जन जीवन में कोरोना संक्रमण को रोकने या कम करने के बारे में जारी अनुदेशों के अनुपालन में देखी जा रही लापरवाही और संजीदगी की कमी से आने वाले समय की भयावह स्थिति का अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

 

 

 

दरअसल सन 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद देश के चुनिंदा शहरों यथा मुंबई, बेंगलुरू, पुणे, हैदराबाद, चेन्नई आदि दक्षिण के राज्यों में निवेश हुआ, कल कारखाने खुले। गुजरात के सूरत आदि शहरों में कपड़ा उद्योग तो पहले से ही चल रहे थे। देश की राजधानी दिल्ली से जुड़े नोएडा एवं गुड़गाँव में निवेश हुआ। इसके चलते इन शहरों में जनसंख्या में लगातार वृद्धि होती चली गई। पंजाब और हरियाणा में कृषि क्षेत्र में सुधार हुआ। इन उद्योगों एवं निर्माण के क्षेत्र में उपरोक्त राज्यों से बड़ी संख्या में मजदूरों का पलायन हुआ। इसकी संख्या इतनी थी कि शायद ही केंद्र या राज्य सरकारों को इसका अनुमान था। कोरोना संकट के समय जब मजदूरों का वापस अपने प्रदेश में आना शुरु हुआ तब जाकर कहीं इनकी संख्या का अनुमान लग पाया।

 

 

 

इस महामारी ने हमारे द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल की कमियों को उजागर किया है। इस मॉडल से कुछ चुनिंदा शहरों में ही सारी आर्थिक गतिविधियाँ सीमित हो गई हैं। परिणाम यह हुआ कि इन शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ा, लोग धारावी जैसी झुग्गी बस्तियों में रहने को बाध्य हैं, और प्रदूषण बढ़ा है। कुल जनसंख्या का एक बहुत बड़ा प्रतिशत बदतर जिंदगी जीने को बाध्य है। विकास के इस मॉडल को बदलने की जरूरत है और सरकार इस दिशा में कदम भी उठा रही है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी नैशनल ररबन मिशन वर्तमान केंद्र सरकार की इस दिशा में एक दीर्घकालिक महत्वाकांक्षी योजना है। अगर गाँव या छोटे शहरों के आस पास कल कारखाने लगें, रोजी रोजगार का सृजन हो, शहर जैसी सुविधाएं उपलब्ध हों तो मजदूरों का पलायन कम होने के साथ साथ शहरों पर जनसंख्या का दबाव घटेगा और बढ़ते प्रदूषण पर भी अंकुश लगेगा। शहर और गाँव के बीच की खाई कम होगी। हालांकि यह एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है, परन्तु इसकी गति को तेज करना एक समृद्ध और सुदृढ़ भारत के निर्माण के लिए अत्यंत आवश्यक है।

 

 

 

 

 

फिलहाल तो बड़ी संख्या में मजदूरों का फिर से शहरों की ओर प्रस्थान उनकी जरूरत है और मजबूरी भी। शहरों के कल कारखानों एवं निर्माण से जुड़े कार्य में गति लाने के लिए मजदूरों को वापस बुलाना कारखाना मालिकों और कन्स्ट्रक्शन कंपनियों की भी जरूरत है और मजबूरी भी। ये प्रक्रियाएं अब दिखने भी लगी हैं। ऐसे समय में केंद्र एवं राज्य सरकारों को मजदूरों की आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी सुरक्षा को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है ताकि भविष्य में किसी प्राकृतिक आपदा के समय या भगवन न करे अगर कोरोना का संकट गहराया तो ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े जैसा हमने अभी अभी देखा है। यह राज्य सरकारों, केंद्र सरकार और मजदूर सब के हित में है। इसमें प्रवासी मजदूरों के मूल राज्य और मेजबान राज्य के सरकारों के बीच राजनीति नहीं आनी चाहिए क्योंकि इसमें दोनों राज्यों के आर्थिक हित हैं।

 

 

 

प्रवासी मजदूरों पर राजनीति का एक नमूना हम गत दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री एवं महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के बयानों में देख चुके हैं। यहाँ हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रवासी मजदूर जहाँ मेजबान राज्यों की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं वहीं अपनी आमदनी से जो कुछ बचा पाते हैं वो रकम वे अपने घरवालों को भेजते हैं। इस तरह वे दोनों राज्यों की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान देते हैं। परन्तु उनके जीवन का दुखद पहलू यह है कि दोनों राज्यों में उन्हें अपनापन नहीं मिलता। अपने गाँव वालों के लिए तो वे मुंबइया हैं तो मेजबान राज्य के नागरिकों के लिए यूपी वाले भैया। खैर, यह तो एक अलग पहलू है परन्तु उनके आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधी हितों की रक्षा के लिए सरकारों को तुरंत ही अलग से कानून बनाने की जरूरत नहीं है बल्कि मौजूदा “ अंतर-राज्यीय प्रवासी मजदूर अधिनियम 1979 ” का अनुपालन ही पर्याप्त है। इस अधिनियम की पृष्ठभूमि में जाएं तो यह मुख्यतः उड़ीसा राज्य से प्रवासित मजदूरों के शोषण के कारण उनके हितों की रक्षा को ध्यान में रखकर तथा भविष्य में होने वाले प्रवास को संज्ञान में लेकर बना था। उस समय तक बिहार यूपी आदि राज्यों से मजदूरों का पलायन नहीं के बराबर था। इन राज्यों से मजदूरों का पलायन तो आर्थिक उदारीकरण के बाद ही शुरु हुआ। प्रवासी मजदूर अशिक्षित और असंगठित होने के साथ साथ बहुत ही कठिन परिस्थितियों में कार्य करते हैं।

 

 

 

 

अंतर-राज्यीय प्रवासी मजदूर अधिनियम के चैप्टर II में मजदूरों की पंजी बनाने का स्पष्ट दिशा निर्देश है। मुख्य नियोक्ता को, जो प्रवासी मजदूरों को काम पर रखना चाहता है उसे भी अपना पंजीकरण कराना होगा, इसके बिना वह किसी प्रवासी मजदूर को काम पर नहीं रख सकता। । जो ठेकेदार एक राज्य से दूसरे राज्य में नोकरी के लिए मजदूर लाता है उसके पास भी लाइसेंस होना अनिवार्य है। हर ठेकेदार की तरफ से प्रत्येक मजदूर को एक पासबूक जारी करने का प्रावधान है जिसमें उसके नियोजन संबंधी शर्तों का विवरण रहेगा। पाँच या उससे अधिक मजदूर को नियोजित करने पर मुख्य नियोक्ता एवं ठेकेदार दोनों पर यह प्रावधान लागू होता है। इस अधिनियम को ठीक ढंग से लागू किया जाए तो प्रवासी मजदूरों को रखने वाले प्रतिष्ठानों की जिम्मेवारी सुनिश्चित होगी, साथ ही पंजीकरण से सरकार के पास यह विवरण (डाटा) उपलब्ध रहेगा की कितने बाहरी मजदूर किस राज्य में काम कर रहें हैं। इस अधिनियम में मजदूरों के काम के घंटे, उनकी मजदूरी, उनके विस्थापन, आवास, स्वास्थ्य सुविधाएं आदि का स्पष्ट प्रावधान है। दुखद पहलू यह है कि इस अधिनियम को लागू करने को कोशिश नहीं की गयी।

 

 

 

केंद्र सरकार को अब राज्य सरकारों को स्पष्ट निर्देश जारी करने चाहिए कि मजदूरों के गृह राज्य एवं मेज़बान राज्य दोनों इसका सख्ती से अनुपालन सुनिश्चित करें। इसके लिए मजदूरों में भी जागरूकता जरूरी है। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे इस कानून के अंतर्गत प्रावधानों के बारे में व्यापक जान जागरण अभियान चलाएं। हालांकि वर्तमान केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि श्रम से संबंधित सभी (13) कानूनों को एक कर इसमें सुधार लाकर सरल बनाया जाए, इस संबंध में एक विधेयक “ कार्य शर्तें , व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य विधेयक 2019” संसद में लाया जा चुका है, जिसके अध्याय XI में इस अधिनियम का संशोधित प्रारूप भी शामिल है। कुछ परिस्थितियों में जब कोई नियोक्ता किसी ठेकेदार के द्वारा न लेकर किसी मजदूर को सीधे रूप में नियोजित करता है, जैसा की अब अधिकांश रुप से होता है वैसी स्थिति में मजदूर के गृह राज्य के अधिकृत अधिकारी के पास उसकी पूरी सूचना रखने का प्रावधान राज्य सरकार द्वारा की जानी चाहिए। ऐसे में दोनों राज्य सरकारों, गृह एवं मेज़बान राज्य के पास प्रवासी मजदूरों का विवरण (डाटा) रहेगा। इससे भविष्य में किसी भी आपदा के समय उन तक सहायता पहुचाने में मदद मिलेगी। इसके साथ ही एक देश एक राशन कार्ड का प्रावधान यथाशीघ्र लागू किया जाना चाहिए जिससे कि जो जहां है उन्हें वहाँ इसका लाभ मिल सके।

 

 

 

इस दिशा में झारखंड सरकार ने सही समय पर एक सराहनीय कदम उठाया है। कोरोना महामारी के दौरान लौटे प्रवासी मजदूरों को अब काम के लिए राज्य से बाहर जाने पर श्रम विभाग से अनुमति लेना अनिवार्य है। इस संबंध में दिशा निर्देश भी जारी कर दिए गए हैं। किसी रेक्रूटमेंट एजेंसी के सहारे बाहर जाते हैं तो उन्हें हरा कार्ड लेना होगा, और अगर मजदूर खुद किसी रोजगार के लिए राज्य छोड़ते हैं तो उन्हें पंचायत सचिव से लाल कार्ड लेना होगा। लाल कार्ड में डीसी व बी डी ओ के मोबाईल नंबर के साथ श्रमिक का पूरा ब्योरा अंकित होगा। आशा की जानी चाहिए कि अन्य राज्य सरकारें भी ऐसे ही कदम उठायेंगी। हाँ, ऐसे कदमों एवं प्रावधानों का व्यापक प्रचार प्रसार विभिन्य समाचार माध्यमों द्वारा किया जाना चाहिए ताकि कोई मज़दूर ऐसे ही बिना किसी पंजीकरण के बाहर न चला जाए। इनके हितों का ख्याल हमें हर हाल में रखना चाहिए साथ ही उनके जीवन स्तर में सुधार के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, क्योंकि इनकी उपेक्षा कर हम एक समृद्ध और आत्मनिर्भर भारत की कल्पना नहीं कर सकते।

 

 

 

 

डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी भी दावे या आंकड़े की पुष्टि नहीं करता है।

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