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उसने मां से निर्णायक स्वर मे कहा- मेरी शादी की चिंता मत करो, मैं साथी ढूंढ लूंगा

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विकास हैदराबाद में अपने आॅफिस में काम कर रहा था, फोन की घंटी के बजते ही समझ गया मां का फोन होगा। उसकी मां जानकी बार-बार फोन करके उसे दिल्ली आने का कार्यक्रम बनाने की जिद कर रही थी। जानकी आजकल बहुत उत्साहित थी। आखिर वह दिन आ ही गया था जिसका उसे बरसों से इंतजार था, अपने पुत्र के लिए कन्या खोजने का। उसे कुछ सालों से यही दहशत थी कि लड़का अपनी पसंद की लड़की लाकर न खड़ी कर दे, ले मां तेरे लिए बहू ले आया। कई बार उसे ऐसे डरावने सपने भी आते थे। वह अपने बच्चों को एेसी गलती कतई नहीं करने देगी जो स्वयं उसने की थी।


विकास के फोन उठाते ही जानकी बोली, ”बेटा टिकट करा ली, कब आने का कार्यक्रम बनाया। मैंने तीन-चार रिश्ते फाइनल किए हैं, तू जब आएगा, तब उन लड़कियों को देखकर रिश्ता पक्का कर लेंगे।”


विकास बोला, ”मां मैंने इस शुक्रवार की टिकट करा ली है, एक दिन की छुट्टी लेकर पांच दिन की बन रही हैं।” तभी पीछे से लावण्य जो उसके आॅफिस में उसके साथ काम करती है का स्वर सुनाई दिया, विकास और कितनी देर लगेगी, खाना ठण्डा हो जाएगा।


फोन में लड़की की आवाज सुनकर जानकी के कान खड़े हो गए, ”ये लड़की की आवाज, कौन है, कहीं तेरा चक्कर तो नहीं चल रहा किसी से?”


विकास ने जल्दी से ‘नो माँ, बाय माँ’ कहकर फोन काट दिया। विकास को हंसी आ रही थी, मां की घबराहट भरी आवाज सुनकर। चक्कर और वह भी लावण्य से, साधारण शक्ल सूरत की लावण्य सीधी-सरल स्वभाव की लड़की है। जब वह हैदराबाद आया था, तब शुरू में खाने को लेकर बहुत परेशान हुआ था। लावण्य भी दिल्ली से थी, उसने विकास को बताया कि यहां रहने में क्या-क्या परेशानी आती है और उनके समाधान निकालने में भी सहायता की। जब तक खाना बनाने वाली का इंतजाम नहीं हो गया, वह स्वयं अपने साथ उसका खाना भी ले आती। उसमें कोई बनावटी पन नहीं था। इसलिए वह उसके साथ बहुत सहज महसूस करता था। वह उसकी अच्छी दोस्त थी, उससे अधिक उसने लावण्य के बारे में सोचा नहीं था।


दिल्ली में विकास का कार्यक्रम बहुत व्यस्त रहा। मां द्वारा चुनी गई चार-पांच लड़कियों से वह परिवार सहित मिला। अब जानकी बैठकर किस लड़की से विवाह करके क्या हानि और क्या लाभ होगा, इसका लेखा-जोखा लगा रही थी। आखिर में उसकी सुई निशा के नाम पर अटक गई। जितने रिश्ते आए थे, उनमें सबसे अधिक पैसा निशा के घरवाले लगा रहे थे, लड़की देखने में भी बुरी नहीं थी। विकास को उसकी पढ़ाई और नौकरी ठीक लग रही थी, निशा की कंपनी का आॅफिस हैदराबाद में भी था। शादी के बाद वह वहां तबादला ले लेगी।


विकास का छोटा भाई सुहास इसलिए प्रसन्न था कि शादी में निशा के पिता ने ऑडी गाड़ी देने का प्रस्ताव रखा था। वह प्रसन्नता से झूमता हुआ बोला, ”भाई कभी-कभी तो देगा न चलाने के लिए, टशन मारने के लिए, लड़कियों को पटाने के लिए।” जानकी निर्णायक स्वर में बोली, ”ठीक है, निशा के घरवालों को कह देती हूं हमारी तरफ से हां है, वे कल आकर आगे की बात कर लें।”


पिता को चुपचाप उठकर वहां से जाते देख विशाल का मन दुखी हुआ। तीनों सलाह मशविरा करने में इतने व्यस्त हो गए कि पिता से सलाह लेना आवश्यक ही नहीं समझा। वह उनके पीछे-पीछे गया, वे अपने शयनकक्ष में कुर्सी पर बैठकर जूते पहन रहे थे।


विकास, ”क्या बात है पापा, आप को रिश्ता पसंद नहीं है क्या?”


पिता के चहरे पर उदासी और निराशा के भाव थे। वे बोले, ”बेटा, जीवन का नया अध्याय शुरू करने जा रहे हो, एक पवित्र बंधन की तैयारी कर रहे हो। उसकी बुनियाद इतने लोभ और ओछेपन पर रखोगे तो भविष्य से क्या उम्मीद कर रहे हो? मृत हृदय के साथ इस शरीर को ढोना इस संसार में कितना बोझिल होता है, क्या तुम समझ नहीं पाए।”


पिता तेज़ क़दमों से चलकर बिना नजरें उठाए शीघ्रता से बाहर निकल गए। जानकी कमरे में दनदनाती हुई आई। ”देखा, घर में जब भी कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता है, ये मुंह में दही जमाकर बैठ जाते हैं। बेटे के भविष्य का सवाल है और ये चले हैं दोस्तों के साथ हंसी-मज़ाक करने। न बारिश की चिंता है, न अपनी जिम्मेदारी का अहसास।”


विकास को आज मां की बातें हंसी-मज़ाक नहीं लग रही थीं, ना ही पति-पत्नी की नोकझोंक। ये ही वे व्यंग बाण थे, जो पिता के हृदय को छलनी करते चले गए और पता ही नहीं चला कब एक मस्तमौला इंसान अपने में ही सिमटता चला गया।


विकास को याद आया, बारिश का ही मौसम था जब वह पिता के साथ स्कूटर पर बैठकर नाना के घर जा रहा था। जानकी ने एक हफ्ते से जिद पकड़ रखी थी कि जब तक नई गाड़ी नहीं आएगी, वह न कुछ खाएगी न किसी से बोलेगी। पिता समझा-समझाकर हार गए कि अभी गाड़ी लेना मुमकिन नहीं है, लेकिन कुछ समय बाद लेने की कोशिश अवश्य करेंगे।


जानकी कहां मानने वाली थी, ”जब पापा पैसे दे रहे हैं गाड़ी खरीदने के लिए तो अपनी ईगो को क्यों बीच में ला रहे हो, जितना कमाते हो उससे तो मेरे मरने के बाद ही गाड़ी खरीद सकोगे।” आखिर पिता जी को ही झुकना पड़ा था, शायद उन्होंने अपने स्वाभिमान को दिल के किसी कोने में धकेल दिया था।


वह बालक बुद्धि खुशी से झूम रहा था समझ गया था कि अब गाड़ी आ जाएगी। नाना के घर उसे वैसे भी बहुत आनंद आता था। एक से एक स्वादिष्ट व्यंजन नानी बनाकर बड़े लाड से उसे खिलाती थी। उस दिन भी नानी ने फटाफट अनेक प्रकार की उसकी पसंद की चीजें प्रस्तुत कर दीं। लेकिन पिता जी मौन खिड़की से बाहर आंख गड़ाए बैठे रहे। उन्हें बारिश देखने में बहुत मज़ा आ रहा था।


नाना हंसते हुए बोले, ”जमाई राजा और थोड़ा पहले आ जाते जब पैसे लेने ही थे, बेकार जानकी को इतना हलकान किया।” पिताजी ने एक शब्द नहीं कहा, चुपचाप चेक लेकर विकास का हाथ पकड़कर बाहर आ गए। फिर तो यह सिलसिला चल निकला। हर बार पिताजी का कद कुछ और छोटा हो जाता, कन्धे कुछ और झुक जाते। घर में महंगे, सुख-सुविधा के साधन इकट्ठे हो रहे थे, लेकिन उन बेजान वस्तुओं ने पिता के अस्तित्व को कुतरकर तार-तार कर दिया था।


पिताजी गाड़ी तभी इस्तेमाल करते थे, जब जानकी और बच्चों को कहीं जाना होता। अकेले होते तो कभी गाड़ी को हाथ नहीं लगाते थे। जानकी तिलमिला के रह जाती, बड़बड़ाती ”इज्जत का कोई ख्याल नहीं है, उस खटारा स्कूटर को घसीटते रहते हैं हर जगह।” मामाजी कभी मिलते तो हंसकर कहते ”जिजाजी अब क्या नई फरमाइश है?” पिताजी झुकी नज़रों से कहते “अपनी जीजी से ही पूछ लो।”


विकास ने जानकी से पूछा, ”आपकी शादी लव मैरिज थी न?”


जानकी बोली, ”हां, काॅलेज में हम दोनों साथ पढ़ते थे। तेरे पिता पढ़ने में बहुत होशियार थे, हर प्रतियोगिता में भाग लेते थे। सबके चहेते थे, लड़कियां पीछे लगी रहती थीं, लेकिन मेरे आगे किसी की नहीं चली। तेरे नाना ने बहुत विरोध किया था, कहा था लड़के को पैरों पर खड़े होने में बहुत समय लगेगा, बाप-दादा से कुछ मिलना नहीं है उसको। लेकिन मेरी बुद्धि फिर गई थी, एक नहीं सुनी। शादी के एक साल बाद ही अक्ल ठिकाने आ गई। प्यार उड़नछू हो गया, जब जिम्मेदारियों ने पैर पसारने शुरू कर दिये।”


विकास का मन कर रहा था कि पूछे, ”जिम्मेदारियों ने या ख्वाहिशों ने?” पापा इतना तो कमा ही लेते थे कि एक मध्यम वर्गीय परिवार की तरह इज्जत से जी सकें। धीरे-धीरे ये सुख-सुविधा के उपकरण भी आते, लेकिन समय के साथ, इतनी जल्दी नहीं जितनी मां को थी।


विकास को लगने लगा कि जीवन शादी के बाद सुकून से बीतना चाहिए न कि ताकत की ज़ोर आजमाइश में। जीवनसाथी ऐसा हो जो साथ दे, दोस्त हो, दोनों एक-दूसरे के विचारों और भावनाओं को समझें व उसकी कद्र करें। उसकी आंखों के सामने लावण्य का चेहरा घूम रहा था। उसे लगा जल्दी से वहां पहुंचकर लावण्य से बात करनी चाहिए। पिताजी के जीवन से सीख ले, वह ऐसी गलती क्यों दुहराए, जिसका अंजाम वह जान गया है। उसने मां से निर्णायक स्वर मे कहा, ”मां, मेरी शादी की चिंता आप मत करो, मैं स्वयं अपने लिए साथी ढूंढ लूंगा।”

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