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वृद्धाश्रम से ही फोन आ गया- बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे

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निशा काम निपटा कर बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी। मेरठ से विमला चाची का फोन था,”बिटिया अपने बाबू जी को आकर ले जाओ यहां से। बीमार रहने लगे हैं, बहुत कमजोर हो गए हैं। हम भी कोई जवान तो हो नहीं रहे हैं, अब उनका करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। वैसे भी आखिरी समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहिए।”


निशा बोली, “ठीक है चाची जी इस रविवार को आते हैं, बाबू जी को हम दिल्ली ले आएंगे।” फिर इधर-उधर की बातें करके फोन काट दिया।


बाबूजी तीन भाई हैं, पुश्तैनी मकान है, तीनों वहीं रहते हैं। निशा और उसका छोटा भाई विवेक दिल्ली में रहते हैं, अपने-अपने परिवार के साथ। तीन चार साल पहले विवेक को फ्लैट खरीदने की लिए पैसे की आवश्यकता पड़ी, तो बाबूजी ने भाइयों से मकान के अपने एक तिहाई हिस्से का पैसा लेकर विवेक को दे दिया था, कुछ खाने पहनने के लिए अपने लायक रखकर। दिल्ली आना नहीं चाहते थे, इसलिए एक छोटा सा कमरा रख लिया था, जब तक जीवित रहेंगे तब तक के लिए।


निशा को लगता था कि अम्मा के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए होंगे बाबूजी, लेकिन वहां पुराने परिचितों के बीच उनका मन लगता था। दोनों चाचियां भी ध्यान रखती थीं। दिल्ली में दोनों भाई-बहन की गृहस्थी भी मजे से चल रही थी। रविवार को निशा और विवेक का ही कार्यक्रम बन पाया मेरठ जाने का। निशा के पति अमित एक व्यस्त डाॅक्टर हैं, महीने की लाखों की कमाई है, उनका इस तरह से छुट्टी लेकर निकलना बहुत मुश्किल है। मरीजों की बीमारी न रविवार देखती है न सोमवार। विवेक की पत्नी रेनू की अपनी जिंदगी है, उच्च वर्गीय परिवारों में उठना बैठना है उसका, इस तरह के छोटे-मोटे पारिवारिक पचड़ों में पड़ना उसे पसंद नहीं।


रास्ते भर निशा को लगा विवेक कुछ अनमना, गुमसुम सा बैठा है। वह बोली, “इतना परेशान मत हो, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है, उम्र हो रही है, थोड़े कमजोर हो गए हैं, ठीक हो जाएंगे।”


विवेक झींकते हुए बोला, “अच्छा खासा चल रहा था, पता नहीं चाचाजी को एेसी क्या मुसीबत आ गई, दो चार साल और रख लेते तो। अब तो मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं, तब कितने कम पैसों में अपने नाम करवा लिया तीसरा हिस्सा।”


निशा शान्त करने की मंशा से बोली, “ठीक है न उस समय जितने भाव थे बाजार में उस हिसाब से दे दिए और बाबूजी आखिरी समय अपने बच्चों के बीच बिताएंगे, तो उन्हें अच्छा लगेगा।”


विवेक उत्तेजित हो गया, बोला, “दीदी तेरे लिए यह सब कहना बहुत आसान है। तीन कमरों के फ्लैट में कहां रखूंगा उन्हें। रेनू से किट-किट रहेगी सो अलग, उसने तो साफ़ मना कर दिया है, वह बाबूजी का कोई काम नहीं करेगी। वैसे तो दीदी लड़कियां हक मांगने तो बड़ी जल्दी खड़ी हो जाती हैं, करने के नाम पर क्यों पीछे हट जाती हैं। आज कल लड़कियों की शिक्षा और शादी के समय में अच्छा खासा खर्च हो जाता है। तू क्यों नहीं ले जाती बाबूजी को अपने घर, इतनी बड़ी कोठी है, जीजाजी की लाखों की कमाई है?”


निशा को विवेक का इस तरह बोलना ठीक नहीं लगा। सोचने लगी कि पैसे लेते हुए कैसे वादा कर रहा था बाबूजी से, “आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो आप नि:संकोच फोन कर देना, मैं तुरंत लेकर आ जाऊंगा। बस इस समय हाथ थोड़ा तंग है।” नाममात्र पैसे छोड़े थे बाबूजी के पास और फिर कभी फटका भी नहीं उनकी सुध लेने।


निशा बोली, ”तू चिंता मत कर, मैं ले जाऊंगी बाबूजी को अपने घर।” सही है उसे क्या परेशानी, इतना बड़ा घर फिर पति रात-दिन मरीजों की सेवा करते हैं, एक पिता तुल्य ससुर को आश्रय तो दे ही सकते हैं।


बाबूजी को देखकर उसकी आंखें भर आईं। इतने दुबले और बेबस दिख रहे थे, गले लगते हुए बोली, “पहले फोन करवा देते, पहले लेने आ जाती।” बाबूजी बोले, ” तुम्हारी अपनी जिंदगी है, क्या परेशान करता। वैसे भी दिल्ली में बिल्कुल तुम लोगों पर आश्रित हो जाऊंगा।”


रात को डाॅक्टर साहब बहुत देर से आए, तब तक पिता और बच्चे सो चुके थे। खाना खाने के बाद सुकून से बैठते हुए निशा ने डाॅक्टर साहब से कहा, “बाबूजी को मैं यहां ले आईं हूं। विवेक का घर बहुत छोटा है, उसे उन्हें रखने में थोड़ी परेशानी होती।”


अमित के एकदम तेवर बदल गए, वह सख्त लहजे में बोला, ”यहां ले आईं हूं से क्या मतलब है तुम्हारा? तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी हैं। मैंने बड़ा घर वृद्धाश्रम खोलने के लिए नहीं लिया था, अपने रहने के लिए लिया है। जायदाद के पैसे हड़पते हुए नहीं सोचा था साले साहब ने कि पिता की करनी भी पड़ेगी। रात-दिन मेहनत करके पैसा कमाता हूं, फालतू लुटाने के लिए नहीं हैं मेरे पास।”


पति के इस रूप से अनभिज्ञ थी निशा। ”रात दिन मरीजों की सेवा करते हो मेरे पिता के लिए क्या आपके घर और दिल में इतना सा स्थान भी नहीं है।”


अमित के चेहरे की नसें तनीं हुईं थीं, वह लगभग चीखते हुए बोला, ”मरीज़ बीमार पड़ता है, पैसे देता है ठीक होने के लिए, मैं इलाज करता हूं, पैसे लेता हूं। यह व्यापारिक समझौता है, इसमें सेवा जैसा कुछ नहीं है। यह मेरा काम है मेरी रोजी-रोटी है। बेहतर होगा तुम एक-दो दिन में अपने पिता को विवेक के घर छोड़ आओ।”


निशा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जिस पति की वह इतनी इज्जत करती है, वे ऐसा बोल सकते हैं। क्यों उसने अपने भाई और पति पर इतना विश्वास किया? क्यों उसने शुरू से ही एक-एक पैसे का हिसाब नहीं रखा? अच्छी खासी नौकरी करती थी, पहले पुत्र के जन्म पर अमित ने यह कहकर छुड़वा दी कि मैं इतना कमाता हूं तुम्हें नौकरी करने की क्या आवश्यकता है। तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी, आराम से घर रहकर बच्चों की देखभाल करो।


आज अगर नौकरी कर रही होती, तो अलग से कुछ पैसे होते उसके पास या दस साल से घर में सारा दिन काम करने के बदले में पैसे की मांग करती तो इतने तो हो ही जाते कि पिता जी की देखभाल अपने दम पर कर पाती। कहने को तो हर महीने बैंक में उसके नाम के खाते में पैसे जमा होते हैं, लेकिन उन्हें खर्च करने की बिना पूछे उसे इजाज़त नहीं थी।


भाई से भी मन कर रहा था कि कह दें कि शादी में जो खर्च हुआ था वह निकालकर जो बचता है उसका आधा-आधा कर दे। कम से कम पिता इज्जत से तो जी पाएंगे। पति और भाई दोनों को पंक्ति में खड़ा करके बहुत से सवाल करने का मन कर रहा था, जानती थी जवाब कुछ न कुछ तो अवश्य होंगे। लेकिन इन सवाल-जवाब में रिश्तों की परतें दर परतें उखड़ जाएंगी और जो नग्नता सामने आएगी, उसके बाद रिश्ते ढोने मुश्किल हो जाएंगे। सामने तस्वीर में से झांकती दो जोड़ी आंखें जिह्वा पर ताला डाल रहीं थीं।


अगले दिन अमित के अस्पताल जाने के बाद जब नाश्ता लेकर निशा बाबूजी के पास पहुंची, तो वे समान बांधे बैठे थे। उदासी भरे स्वर में बोले, ”मेरे कारण अपनी गृहस्थी मत खराब कर। पता नहीं कितने दिन हैं मेरे पास, कितने नहीं। मैंने इस वृद्धाश्रम में बात कर ली है, जितने पैसे मेरे पास हैं, उसमें मुझे वे लोग रखने को तैयार हैं। ये ले पता तू, मुझे वहां छोड़ आ और निश्चिंत होकर अपनी गृहस्थी सम्भाल।”


निशा समझ गई, बाबूजी की देह कमजोर हो गई है, दिमाग नहीं। दामाद काम पर जाने से पहले मिलने भी नहीं आया, साफ बात है, ससुर का आना उसे अच्छा नहीं लगा। क्या सफाई देती, चुपचाप टैक्सी बुलाकर उनके दिए पते पर उन्हें छोड़ने चल दी। नजरें नहीं मिला पा रही थी, न कुछ बोलते बन रहा था। बाबूजी ने ही उसका हाथ दबाते हुए कहा, ”परेशान मत हो बिटिया, परिस्थितियों पर कब हमारा बस चलता है। मैं यहां अपने हमउम्र लोगों के बीच खुश रहूंगा।”


तीन दिन हो गए थे बाबूजी को वृद्धाश्रम छोड़कर आए हुए। निशा का न किसी से बोलने का मन कर रहा था, न कुछ खाने का। फोन करके पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे कैसे हैं? इतनी ग्लानि हो रही थी कि किस मुंह से पूछे। वृद्धाश्रम से ही फोन आ गया कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे। दस बजे थे, बच्चे पिकनिक पर गए थे, आठ-नौ बजे तक आएंगे, अमित तो आते ही दस बजे तक हैं। किसी की भी दिनचर्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा, किसी को सूचना भी क्या देना। विवेक आॅफिस चला गया होगा, बेकार छुट्टी लेनी पड़ेगी।


रास्ते भर अविरल अश्रु धारा बहती रही, कहना मुश्किल था कि पिता के जाने के ग़म में या अपनी बेबसी पर आखिरी समय पर पिता के लिए कुछ नहीं कर पायी। तीन दिन केवल तीन दिन अमित ने उसके पिता को मान और आश्रय दे दिया होता, तो वह हृदय से अमित को परमेश्वर का मान लेती।


वृद्धाश्रम के संचालक महोदय के साथ मिलकर उसने औपचारिकताएं पूर्ण की। वह बोल रहे थे, ”इनके बहू-बेटा और दामाद भी हैं, रिकॉर्ड के हिसाब से। उनको भी सूचना दे देते तो अच्छा रहता। वह कुछ संभल चुकी थी, बोली- नहीं इनका कोई नहीं है, न बहू न बेटा और न दामाद। बस एक बेटी है, वह भी नाम के लिए।”


संचालक महोदय अपनी ही धुन में बोल रहे थे, ”परिवार वालों को सांत्वना और बाबूजी की आत्मा को शांति मिले।” निशा सोच रही थी ”बाबूजी की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी। जाने से पहले सबसे मोह भंग हो गया था। समझ गये होंगे कि कोई किसी का नहीं होता, फिर क्यों आत्मा अशान्त होगी। हां, परमात्मा उसको इतनी शक्ति दें कि किसी तरह वह बहन और पत्नी का रिश्ता निभा सके।”

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