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आस्था ही अन्ध विश्वास है..यह सर्वथा गलत है
कल मैं एक नीजी टीवी चैनल पर निर्मल बाबा की बखिया उधेड़ने वाले इक कार्यक्रम को देख रहा था। उन सभी लोगं में एक कु-तर्क शास्त्री सनल इडमार्कू भी थे…वे अन्ध विश्वास और आस्था दोनों को एक तराजू पर तौल रहे थे। वास्तवीक में लोगों में इस प्रकार का संदेश देना की आस्था ही अन्ध विश्वास है..यह सर्वथा गलत है, इसके लिए लोगों को सामने आकर बताना होगा। क्योंकि इन्हीं कुतर्क शास्त्रीयों के चक्कर में भारतीय वैदिक वांगमय की परम्पराएं हाशिए पर हैं। आस्था केवल (सभी सम्प्रदायों में चाहे वह हिन्दू, मुश्लिम, शिक्ख, ईसाई कोई भी धर्म हो अपने आराध्य ईश्वर के प्रति रहती है न कि इन तथाकथित बाबाओं के समोसे, गोलगप्पे, काला पर्स और दस के नोटों के गड्डियों में, यही अन्धविश्वास है) आस्था का मतलब अपने धर्मानुसार ईश्वर के प्रति समर्पण है।
ऐसे कुतर्कियों का पुरजोर विरोध करना चाहिए..एक तरफ तो निर्मल बाबा जैसे ढ़ोंगियों ने हिन्दू धर्म को हाशिए पर ला खड़ा किया है। वहीं तथाकथित कुछेक तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने भी धर्म (सनातन) को वेधने का काम कर रहे है…इन सब कुतर्कों को देखकर ऐसा लगता है..सनातनी हिन्दू धर्म के साथ कोई बहुत बड़ी साजीश हो रही है। हालाकि धर्मांतरण में कुछ लोगों की संलिप्तता भी नकारा नहीं जा सकता । मुझे श्रीमद्भागवत के पूतना का प्रंसंग याद आता है कि वह माँ बन कर दुग्ध अपने स्तन से भगवान कृष्ण को पिलाती है और बालक कृष्ण के अन्दर राक्षसी कुरीतियों को प्रवेश करना चाहती है उसी प्रकार कुछ लोग आदिवासी बहुल क्षेत्रों के भोले भाले लोगं को पैसे-रूपये, और भी ढ़ेर सारी प्रलोभनों के जरीए…पूतना सदृश दुग्ध पिलाकर अपने राक्षसी धर्म में सम्म्लित करना चाहते हैं, और उनका यही प्रयास है कि आस्था और अन्धविश्वास दोनों को एक तराजू पर तौल कर इसे बदनाम कर दिया जाय। ताकि लोगों का मोहभंग हो और वह सनातन धर्म के बजाय अन्य धर्म अपना लें। और ऐसे लोगों को निर्मल बाबा जैसे ढ़ोंगी बाबाओं के कृत्य हवा देने का काम करते हैं, जिसका पूरा लाभ ये बिचौलिये उठाना चाहते हैं।
-ज्योतिषाचार्य पं.विनोद चौबे, ” ज्योतिष का सूर्य ” राष्ट्रीय मासिक पत्रिका
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