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प्रतिछवि —

poems and write ups
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प्रतिछवि—-
मैं उगते सूरज की लम्बी किरणों को देख रही थी ,सूरज बड़ा सा लाला गोला नज़र आरहा था वैसे शाम को भी तो ऐसा ही लगता है- सिर्फ दिशा ही तो बदल जाती है! मुझे पापा याद गये वो मुझे सुबह शाम दूर क्षितिज तक ले जाते !पापा की लाड़ली बेटी थी मैं ,वो मुझे अपने कन्धों पर बैठा के घुमाने लेजाते ,कभी ऊँगली पकड़ कर सुन्दर नज़ारे दिखलाते! कभी कहते तू तो मेरी राज कुमारी है और कभी मुझे मिस साहब कहते !जब भी कोई मुझे उनके साथ देखता तो यही कहता बिलकुल अपने पापा की प्रतिछवि है ये तो ! पापा कहते “तेरे जैसी तो मेरे १० और भी हो जाती” मुझे कुछ ज़्यादा तो समझ नहीं आता था पर मैं अपने आप पे इतरा ज़रूर जाती! मैं और पापा मिल कर गज़लें और शायरी सुनते वो मुझे कठिन उर्दू के शब्दार्थ बताते ! उन्होंने मुझे अच्छे और बुराई का फर्क समझाया,किसी का दिल न दुखाने की नसीहत दी,जितनाचाहे आगे पढ़ने ,स्वावलम्बी बनने और फिर अपनी राह चुनने की स्वतन्रता दी ! जाने क्यों सूरज को देख कर मुझे हमेशा पापा याद आ जाते हैं जो रोज़ उग जाता है राह दिखाने के लिए और डूब जाता क्षितिज के उस पार !आज ये मेरी बेटी का हाथ थामे उसे घुमाने जा रहे थे तो ऐसा लगा कि पापा ने फिर मेरा हाथ थाम लिया है !
——ज्योत्स्ना सिंह !

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