जिन्दगी
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जिंदगी भर आहत रही मैं
बचपन –
सबकी जरूरतों के
हिसाब से और
अपनी जरूरतों को
छोड़ते बीत गया |
जवानी –
माँ बाप के चेहरे पर
अपनी शादी शुदा बेटियों की
परेशानियों को देखकर
बदती झुरियों को
देखकर और
अपनी परेशानियों को
छुपाते बीत गया |
ससुराल में-
कर्जों के बोझ से दबे
पति के कंधे और
जरूरतों के बोझ से
दबी मैं
सबके लिए जीती रही
खुद को हर हाल में
समझोतावादी बनती रही –
हर जगह मैं स्टेपनी की तरह
बरती गयी –
जरुरत पूरी होने पर
साइड में फेंकी गयी –
आज भी………………….
मुझमें ही कोई कमी रही होगी
तभी मेरा कोई नहीं
भीड़ में रह कर भी
अकेली मैं
सदा
स्टेपनी की तरह बरती गयी……….!!
हर औरत की यही कहानी- कहने को सारा जहाँ हमारा……. पर अपना कोई नहीं ……..
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