जिन्दगी
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खंडहर में लिखी कविता
झील का किनारा कब छू पाई-
पत्थरों की जड़ों में
दबी गरम, सूखी सांसे-
मौत और जिंदगी के बीच झूलती
कटीली झाड़ियों के ठूठों को देखकर
कितना मुस्करा पाई ?
पत्थर के दरकने पर
कभी ठंडी हवा नहीं चली ,
कोई नहीं जानता |
पत्थर के टुकड़े कब
सिसकते सिसकते रोते रहे ?
कविता अभी भी
झुकती, मुडती
पत्थरों के टुकड़ों से भरी
संकरी पगडण्डी पर चल रही है |
शायद खंडहर ख़तम हों
और कोई झील,
झील का किनारा मिल जाए |
कान्ता गोगिया
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