जिन्दगी
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मुंडेर से उतर कर
जैसे चली जाती है धूप
तुम चले गए हो
मेरे दिल को छोड़कर
खाली मकान की तरह
उदास रहता है वह,
रात में अक्सर
सितार की तरह बजती है
तुम्हारी बातें – दिल के एकांत में
और जाते समय भी
तुम्हारी पदचाप
सन्नाटे को तोड़ देती है
देहलीज पर पाँव रखकर
खामोश चढ़ जाती है छत पर
जैसे सूरज की किरणे
किसी एक सुबह ,
तुम आ जाओ
मैं सच कहती हूँ
महीनों से लेटी मौसम की नींदें
हमारी खातिर
पलंग से उठ कर चली जाएँगी
जैसे चली जाती हेई धुप
मुंडेर से उतर कर चुपचाप .
कांता गोगिया
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