जिन्दगी
- 70 Posts
- 50 Comments
मेरे बुलंद हौंसले, संग दिल संकल्प,
अफरात सपने – उम्मीदों के अम्बर
विश्वासों के विस्तार,
सबको एक साथ –
समेट नहीं पाया मेरा दिल, कि दरक गया!
बुलंद हौंसलों को – तनिक सा ललकारने को होती हूँ
कि यह कम्बखत दिल – जो हरदम धडकता रहता है
रुकने सा लगता है – कांपता है
कसकने लगता है – सीने में एक दर्द !
दीवारों के नीचे से खिसकने लगती है मिटटी –
धसकने लगती हैं – दीवारें, खपरैल छत
जिसे अभी मरम्मत करना बाकी था- बैठने लगती हैं |
एक तीखा दर्द उठता है –
जैसे कोई घर की नीव में सेंध लगाकर,
खिसका रहा हो नीवं का पत्थर!
घर गिरने के पूर्वाभास से
भाग जाते हैं घर छोड़कर
घर के लोग – उससे बाहर!
पर मैं भागकर कहाँ जाऊं ?
भागना तो मौत होगी
– तो गिरने दो घर
उसमें रहते-रहते, उसे बचाने की कोशिश में
दबकर मरना कहीं अच्छा है – भाग कर मरने से |
कान्ता गोगिया
Read Comments