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ग़ज़ल

जिन्दगी
जिन्दगी
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यारों! कहाँ तक और मोहब्बत निभाऊं मैं ?
दो मुझको बददुआ कि उसे भूल जाऊं मैं |

सुनती हूँ अब किसी से वफ़ा कर रहा है वो,
ऐ जिंदगी ! ख़ुशी में कहीं न मर जाऊं मैं |

कुछ कदम भी साथ मेरे चल न सका वो,
हिज्र कि रात आ, कि तुझे आजमाऊं मैं |

उस जैसा नाम रखके अगर आये मौत भी,
हंसकर उसे ‘सागर’ , गले से लगाऊं मैं |

– कान्ता गोगिया

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