जिन्दगी
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मैं केवल एक बूँद हूँ
कहाँ, किधर जाऊं कुछ होश नहीं
कोन स्वीकार करेगा
मैं केले के वृक्ष में गिरती, समुंदर में या सीप में गिरती
सीप में गिरती तो अपना गौरव समझती……….
समुन्दर में गिरती तो ……………..
मैं सोच ही रही थी कि हवा का वेग आया
और अपने में समेट ले गया मुझे
मैं कुंठित सी, ठिठुरी सी , अस्तित्वहीन सी
बालू में जा मिली,
मैं दुखी असहाए थी
बालू- मंदिर के निर्माण और मूर्ति की स्थापना में लगी
उस बालू में मैं हूँ
उस प्रतिमा में ईशवर, मेरे में है
अब मैं स्वएं को एक बूँद की संज्ञा दूं या
पृथक अस्तित्व की |
मैं इक बूँद हूँ या ………………….
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