जिन्दगी
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प्रतीत होता है
मानो
खड़ी हूँ
एक वीरान चौराहे पर
स्वय
तय करना है
मार्ग, मंजिल तक पहुचने का
मानती हूँ,
नहीं है
बस में कुछ भी नहीं मेरे!
परन्तु –
नहीं रह सकती
इसी तरह, एक स्थान पर खड़ी
नहीं चाहती !
पहुँचाना –
पीड़ा किसी भी ह्रदय को
परन्तु –
चाहती हूँ
बचना- सदमे से , धोखे से
नहीं चाहती
बनना केवल
एक वस्तु प्रयॊग के लिए
चाहती हूँ ‘ एक एहसास ‘
अपने जीवित मात्र होने का |
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