जिन्दगी
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दो चार कदम जिंदगी, चली नहीं कि थक गई
गहराए गढ्ढे गालों के, बालों की फसल पक गई
दावा था जिनका बात सच, कहेंगे चाहे जो भी हो,
पड़ा जो वक्त बात उनकी, गले में अटक गई ।
इंसान ने इंसानियत को, ‘घर निकाला’ दे दिया,
अब कौन जाने दोनों में, कहां पे कब ठन गई ।
मिलता नहीं इंसाफ, सरेआम देखा मैंने,
परवाना गुनहगार, शमा फांसी पे लटक गई ।
– (c) कान्ता
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