Menu
blogid : 12313 postid : 773533

परछाई

जिन्दगी
जिन्दगी
  • 70 Posts
  • 50 Comments

एक बार मैंने
वक़्त के दायरे में सिमटी
एक ‘तस्वीर’ देखी
मैंने उसे छूना चाहा
मगर वह एक परछाई थी,
मैं उसे पाना चाहा-
मगर वह एक हक़ीक़त थी,
मैंने उसे प्यार करना चाहा –
मगर वह बर्फ की तरह सर्द थी
शायद इसी का नाम
मौत है
जो एक सर्द परछाई है
सदा साथ हमारे रहती है
मगर हक़ीक़त है
मैं आज भी
वक़्त के इन सुनसान
गलियारों में भटक रही हूँ
और
ये सर्द परछाइयाँ
मेरी जिंदगी की
हक़ीक़त बनकर
मेरा पीछा कर रहीं हैं.

-(c) कान्ता ‘दीप’ (१४.६.१९९४)

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply