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तमाम उम्र कस कर मुट्ठी में पकडे रहा उम्मीदों की रेत को
अब बची है एक चुटकी उम्मीद की बामुश्किल से
इस उम्मीदों की मुट्ठी को अब जकड़ कर क्या करूँगा
जब उम्मीदे ही ना हो कल की , फिर जी कर क्या करूँगा ?
मैं करता रहा इंतजार हर रात तेरे आने का
बिस्तर पर बदलता करवटे तेरे बिना नींद को लाने का
अब सो जाता हूँ यह करके अहसास तुझे नहीं आना है
तेरे साथ जिन्दगी शायद अब कभी नहीं बिताना है
ऐसे अहसास के साथ मैं कैसे बाकी जिन्दगी रहूँगा
जब तू ही नहीं है मेरे पास , फिर जी कर क्या करूँगा ?
सोचता था दुनिया के रंगों से जी भरकर होली खेलूँगा
लेकर तेरा हाथ अपने हाथ में दुनिया के सैर कर लूँगा
जो कल तक थे बेगाने उन्हें मैं अपना कर लूँगा
शायद तेरी सोच में मेरे ख़्वाबों की जगह नहीं
इस बदरंग जिन्दगी में अब नए रंगों की जगह नहीं
हसरतो के नए कैनवास में अब कौन सा रंग उडेलूँगा
जब रंग ही मेरे पास नहीं , फिर किसका स्केच उकेरुंगा
तू ही नहीं जब सामने, फिर जी कर क्या करूँगा ?
दिल भी तडपता है और साँस भी किसी तरह से चल जाती है
बिना धडकन के ना जाने यह जिस्म को कैसे चलाती है
इस बेग़ैरत दिल का ख्याल मैं कब तक इस तरह से रखूँगा
मेरी धड़कन तुझे मेरे जिस्म में धड़कना ही नहीं
फिर इस जिस्म को इस कदर ढोकर क्या करूँगा
तेरे दिल के बिना मैं , फिर जी कर क्या करूँगा ?
By
Kapil Kumar
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