Menu
blogid : 12407 postid : 762426

एक चिरैया सोना-माटी

अंतर्नाद
अंतर्नाद
  • 64 Posts
  • 1122 Comments

एक चिरैया सोना-माटी


जिस बाग तू गाती गीता रे,

उस बाग में दिन मेरा बीता रे !

ओरे, सोना-माटी चिरैया

गाती तू सुख-दुःख गीता रे !


जब चिरैया सुबह तू गाती

जब रे दुपहर में तू गाती

तब मैं गंगा-धार बहाता

गोमुख से सागर तक जाता

गाते-गाते साँझ ढले

चुप हो जाती मनमीता रे !


होती पतझर देख रुआँसी

मधुबन में चहकार मचाती

घनी ये आम-बबूली छाया

मैं भी तो धरती का जाया

गरमी, बरखा, जाड़ा सारा

जाता तुझ सँग बीता रे !


मौसम-बेमौसम सब होते

हाथों के फल मीठे-तीते

बीते की पाथर-पाटी के

कदम निशान कहाँ मिटते

आलस का मुर्दाघर सोता

सजग सदा जगजीता रे !


धूप-छाँह का रंग जमाता

फूल-बाग लहराता-गाता

काँटों को जो झेल न पाता

बाग से बाहर हो ही जाता

डाल-पात भी बहुत गिरे

पर बाग कभी न रीता रे !


— संतलाल करुण

Read Comments

    Post a comment