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संसद में गर्व का अटल हिमालय
दरिया दिल ऐसा बड़ा था
वह सदा तम से लड़ा था |
शब्द आते स्वयं थे
जिह्वा पे जिसके नाचते
अर्थ करते चाकरी
वाचन में जीवन बाँचते
कंठ से खिलती सुगम
निश्छल विचारों की लड़ी थी
हर किसी पर बरस जाती
मर्म भेदक फुलझड़ी भी
देश का वह रत्न जैसे
मुकुट भारत के जड़ा था |
वह पक्ष क्या, विपक्ष क्या
दोनों का था ऐसा सुमन
नीतियाँ सब राज की
आँखों में पातीं दर्प-दर्पन
व्यक्तित्व था ऐसा घना
जिसमें थे सारे संतुलन
रो सका था, हँस सका था
समझता था जन का मन
भिन्नताओं बीच उसने
लक्ष्यगामी पथ गढ़ा था |
विष भरी सत्ता पे ऐसी
कुछ इबारत लिख गया वह
राह चलने की निराली
विषमता में दे गया वह
देश के उलझे हुए
जनतंत्र को सुलझा सकें
सब परस्पर साथ चल
फिर राष्ट्र-गौरव पा सकें
कौरवों के व्यूह में भी
अटल व्यापक वह खड़ा था |
भाव के अनुभाव ऐसे
बाँध लेते थे सभी को
नम्रता में वाक्पटुता
मोह लेती हर किसी को
गर्व का ऐसा हिमालय
था नहीं संसद में कोई
भारती जिसके निधन पर
पीट छाती आज रोई
जो चुनौती में उछल
ऊँचे कँगूरों पे चढ़ा था |
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